कहानी संग्रह >> वीर बालक वीर बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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वीर बालकों के साहसपूर्ण कृत्यों की मनोहारी कथाएँ
पुत्र
की बात सुनकर गुरुजी ने उसे हृदय से लगाया और कहा- 'बेटा! धन्य हो तुम!
अपने देश और धर्म के लिये मर-मिटने वाले ही अमर हैं। तुम अपने कर्तव्य का
पालन करो। अजीतसिंह आठ-दस सिख-सैनिकों के साथ शत्रु के दल पर टूट पड़े।
उनका आक्रमण शत्रु के लिये साक्षात् यमराज के आक्रमण के समान भयंकर सिद्ध
हुआ। लेकिन बहुत बड़ी सेना के सामने दस-ग्यारह मनुष्य क्या कर सकते थे।
सैकड़ों शत्रुओं को सुलाकर उन्होंने भी वीरों की गति प्राप्त की। बड़े भाई
के युद्ध में गिर जाने पर उनसे छोटे जुझारसिंह ने गुरुजी को प्रणाम करके
कहा- 'पिताजी! मुझे आज्ञा दीजिये, ताकि मैं भी अपने बड़े भाई का अनुगामी
बन
सकूँ।'
धन्य
हैं वे पुत्र जो इस प्रकार देश और धर्म पर मरने को उत्सुक होते हैं और
धन्य हैं वे पिता जो अपने पुत्रों को इस प्रकार आत्मबलि देने का
प्रसन्नता
से आशीर्वाद देते हैं। गुरुजी ने जुझारसिंह को आशीर्वाद दिया- 'जाओ
पुत्र!
देवता तुम्हारी प्रतीक्षा करते हैं। अमरत्व प्राप्त करो।
जुझारसिंह
भी अपने थोडे से बचे हुए साथियों के साथ टूट पड़े। थके, भूखे सिख-सैनिक
और
उनके नेता जुझारसिंह तो अभी बालक ही थे; किंतु जब वे शत्रु से
लड़ते-लड़ते
युद्ध-भूमि में गिरे, उस समय तक शत्रु के इतने सैनिक मारे जा चुके थे कि
मुसलमान सेना का साहस गुरुजी का पीछा करते आगे बढ़ने का नहीं हुआ।
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