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प्रेमचन्द की कहानियाँ 2

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9763
आईएसबीएन :9781613015001

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग


उसने अपने पॉकेट-बुक में यह नाम दर्ज कर लिया। फिर बोला, ''इससे कहाँ मुलाक़ात होगी?''

मैंने जवाब दिया, ''मैं क्यूँ कर बता सकता हूँ? इस गाँव के किसी आदमी से जाकर पूछो और खूब समझ लो। इस गाँव के एक ऐसे आदमी का नाम बता दिया है जो मुझे पहचानता है। अब भी अपनी खैरियत चाहते हो तो उसे बुलाकर तहक़ीक़ कर लो। तुम्हारे लिए एक आफ़त से छुटकारा पाने का आखिरी मौका है।''

इंस्पेक्टर ने कहा, ''अच्छा तो मैं भी आपसे कहे देता हूँ कि अगर वह आदमी ढूँढने से भी न मिला तो आपकी खैरियत नहीं है।''

उसने जंगले के पास जाकर एक छोटी-सी सीटी बजाई। उसके बाद दवी जुबान से किसी से कहा, ''जाओ, यहाँ प्रान पदपान नाम का कोई आदमी है। उसे बुला लाओ और उससे पूछना कि क्या आज यूनियन थिएटर के मालिक देवेंद्र बाबू से उसकी मुलाक़ात हुई थी?''

फिर वह वापिस आकर हम लौगों के पास बैठ गया। जो आदमी प्रान पद को बुलाने गया था, हम लोग उसका बड़ी बेचैनी से इंतज़ार कर रहे थे। उफ़! इतना वक्त कितनी मुश्किल से कटा। इंस्पेक्टर बैठे-बैठे उकताकर बाहर चला गया।

जरा देर के बाद हेम बाबू बोले, ''सुनते हैं कुछ? मालूम होता है कि वह आदमी लौट आया है। यह सुनिए, वह बातें कर रहे हैं।''

कुछ मिनट और गुज़र गए। इंस्पेक्टर ने तनहा घर में आकर कहा, ''प्रान पद बाबू से मेरे आदमी की मुलाक़ात हुई और उन्होंने भी कहा कि आज सवेरे देवेंद्र बाबू से वह मिले थे। लेकिन इससे क्या हो सकता है? आप दोनों में से कौन देवेंद्र बाबू है? यह मुझे कैसे मालूम हो? प्रान पद बाबू बैठे अपनी लड़की को कहानी सुना रहे हैं। इस वक्त न आ सकेंगे। अब फ़िजूल देर क्यूँ की जाए। चलिए फ़ौरन थाने मैं।''

निराश होकर मेरे मुँह से निकला, ''या परमात्मा!''

सच कहने में हर्ज ही क्या है। मुझे अब छूटने की कोई उम्मीद न थी। आखिरी सहारा टूट गया। मैं भयभीत होकर घर में टहलने लगा। प्रान पद पर गुस्सा आता था। कमबख्त इस हालत में हम लोगों के लिए यहाँ तक आने की तकलीफ़ नहीं उठा सकता। इंस्पेक्टर से पूछा, ''उस बदमाश ने क्या कहा?''

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