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प्रेमचन्द की कहानियाँ 2

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9763
आईएसबीएन :9781613015001

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग


नवयुवक ने बड़े नम्र शब्दों में जवाब दिया। उसके चेहरे से भलमनसाहत रसती थी- ‘‘मैं आपका पुराना सेवक हूँ। दास का घर राजनगर में है। मैं वहाँ का जागीरदार हूँ। मेरे पूर्वजों पर आफके पूर्वजों ने बड़े अनुग्रह किए हैं। मेरी इस समय जो कुछ प्रतिष्ठा तथा संपदा है सब आपके पूर्वजों की कृपा और दया का परिणाम है। मैंने अपने अनेक स्वजनों से आपका नाम सुना था और मुझे बहुत दिनों से आपके दर्शनों की कांक्षा थी। आज वह सुअवसर भी मिल गया। अब मेरा जन्म सफल हुआ।’’

पंडित देवदत्त की आँखों में आँसू भर आए। पैतृक प्रतिष्ठा का अभिमान उनके हृदय का कोमल भाग था।

वह दीनता जो उनके मुख पर छाई हुई थी, थोड़ी देर के लिए विदा हो गई। वे गंभीर भाव धारण करके बोले- ‘‘यह आपका अनुग्रह है, जो ऐसा कहते हैं। नहीं तो मुझ जैसे कपूत में तो इतनी भी योग्यता नहीं है जो अपने को उन लोगों की संतति कह सकूँ।’’

इतने में नौकरों ने रमने में फ़र्श बिछा दिया। दोनों आदमी उस पर बैठे और बातें होने लगीं, वे बातें जिनका प्रत्येक शब्द पंडितजी के मुख को इस तरह प्रफुल्लित कर रहा था जिस तरह प्रातःकाल की वायु फूलों को खिला देती हं। पंडित जी के पितामह ने नवयुवक ठाकुर के पितामह को पच्चीस सहस्र रुपए कर्ज दिए थे। ठाकुर अब गया में जाकर अपने पूर्वजों का श्राद्ध करना चाहता था, इसलिए जरूरी था कि उनके जिम्मे जो कुछ ऋण हो उसकी एक-एक कौड़ी चुका दी जाए। ठाकुर को पुराने बहीखाते में यह ऋण दिखाई दिया। पच्चीस के अब पचहत्तर हज़ार हो चुके थे। वही ऋण चुका देने के लिए ठाकुर दो सौ मील से आया था। धर्म्म ही वह शक्ति है जो अंतःकरण में ओजस्वी विचारों को पैदा करती है। हाँ, इस विचार को कार्य में लाने के लिए एक पवित्र और बलवान् आत्मा की आवश्यकता है। नहीं तो वे ही विचार क्रूर और पापमय हो जाते हैं। अंत में ठाकुर ने पूछा- ‘‘आपके पास तो वे चिट्ठियाँ होंगी?’’

देवदत्त का दिल बैठ गया। वे सँभलकर बोले- ‘‘संभवत: हों। कुछ कह नहीं सकते।’’ ठाकुर ने लापरवाही से कहा- ‘‘ढूँढ़िए, यदि मिल जाएँ तो हम लेते जाएँगे।’’ पंडित देवदत्त उठे, लेकिन हृदय ठंडा हो रहा था। शंका होने लगी कि कहीं भाग्य हरे बाग न दिखा रहा हो। कौन जाने वह पुर्जा जलकर राख हो गया या नहीं। यह भी तो नहीं मालूम कि वह पहले भी था या नहीं। यदि न मिला तो रुपए कौन देता है। शोक! दूध का प्याला सामने आकर हाथ से छूटा जाता है। हे भगवान्! वह पत्री मिल जाए। हमने अनेक कष्ट पाए हैं। अब हम पर दया करो। इस प्रकार आशा और निराशा की दशा में देवदत्त भीतर गए और दीया के टिमटिमाते हुए प्रकाश में बचे हुए पत्रों को उलट-पुलटकर देखने लगे। वे उछल पड़े और उमंग में भरे हुए बौड़हों की भाँति आनंद की अवस्था में दो-तीन बार कूदे। तब दौड़ कर गिरिजा को गले से लगा लिया, और बोले- ‘‘प्यारी, यदि ईश्वर ने चाहा तो तू अब बच जाएगी।’’ इस उन्मत्तता में उन्हें एकदम यह नहीं जान पड़ा कि ‘गिरिजा’ अब वहाँ नहीं है, केवल उसकी लोथ है।

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