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प्रेमचन्द की कहानियाँ 2

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9763
आईएसबीएन :9781613015001

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग


पन्ना कहती– रग्घू बेचारे का कौन दोष है?

केदार कहता– चल, मैं खूब समझता हूँ। भैया की जगह मैं होता, तो डंडे से बात करता। मजाल थी कि औरत यों जिद करती। यह सब भैया की चाल थी। सब सधी-बदी बात थी।

आखिर एक दिन रग्घू का टिमटिमाता हुआ जीवन-दीपक बुझ गया। मौत ने सारी चिन्ताओं का अन्त कर दिया।

अन्त समय उसने केदार को बुलाया था; पर केदार को ऊख में पानी देना था। डरा, कहीं दवा के लिए न भेज दें। बहाना बता दिया।

मुलिया का जीवन अन्धकारमय हो गया। जिस भूमि पर उसने मनसूबों की दीवार खड़ी की थी वह नीचे से खिसक गयी थी। जिस खूँटे के बल पर वह उछल रही थी, वह उखड़ गया था। गाँव वालों ने कहना शुरू किया, ईश्वर ने कैसा तत्काल दंड दिया। बेचारी मारे लाज के अपने दोनों बच्चों को लिये रोया करती। गाँव में किसी को मुँह दिखाने का साहस न होता। प्रत्येक प्राणी उससे यह कहता हुआ मालूम होता था– ‘मारे घमंड के धरती पर पाँव न रखती थी, आख़िर सज़ा मिल गयी कि नहीं।’

अब इस घर में कैसे निर्वाह होगा? वह किसके सहारे रहेगी? किसके बल पर खेती होगी? बेचारा रग्घू बीमार था, दुर्बल था, पर जब तक जीता रहा, अपना काम करता रहा। मारे कमजोरी के कभी-कभी सिर पकड़ कर बैठ जाता और जरा दम लेकर फिर हाथ चलाने लगता था। सारी खेती तहस-नहस हो रही थी, उसे कौन सँभालेगा? अनाज की डाँठें खलिहान में पड़ी थीं, ऊख अलग सूख रही थी। वह अकेली क्या-क्या करेगी?  पर सिंचाई अकेले आदमी का काम नहीं। तीन-तीन मजदूरों को कहाँ से लाये ! गाँव में मजूर थे ही कितने। आदमियों के लिए खींचा तानी हो रही थी। क्या करे,  क्या न करे!

इस तरह तेरह दिन बीत गये। क्रिया कर्म से छुट्टी मिली। दूसरे ही दिन सबेरे मुलिया ने दोनों बालकों को गोद में उठाया और अनाज माँड़ने चली। खलिहान में पहुँचकर उसने एक को तो पेड़ के नीचे घास के नर्म बिस्तर पर सुला दिया और दूसरे को वहीं बैठा कर अनाज माँड़ने लगी। बैलों को हाँकती थी और रोती थी। क्या इसीलिए भगवान् ने उसको जन्म दिया था। देखते-देखते क्या से क्या हो गया? इन्हीं दिनों पिछले साल भी अनाज माँड़ा गया था। वह रग्घू के लिए लोटे में शरबत और मटर की घुँघनी लेकर आई थी। आज कोई उसके आगे है न पीछे ! लेकिन किसी की लौंडी तो नहीं हूँ ! उसे अलग होने का अब भी पछतावा न था।

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