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प्रेमचन्द की कहानियाँ 2

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9763
आईएसबीएन :9781613015001

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग


मैंने हेम बाबू की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। इस वक्त शाम हो रही थी। घर में चारों तरफ़ अँधेरा छाया हुआ था। हम लोग रोशनी के इंतज़ार में बैठे हुए थे। थोड़ी देर के बाद एक अजनबी आदमी रोशनी लिए हुए दाखिल हुआ। उसे देखकर मैं जितना नहीं चौंका था, उसकी बातें सुनकर चौंक पड़ा। हज़रत कहते क्या हैं कि तुम लोग अलाइंस बैंक से रुपया चुराकर भागे हो। वह हज़रत पुलिस के इंस्पेक्टर थे और हमीं लोगों के सुराग़ में कलकत्ता से आए थे।

हम दोनों आपस में एक-दूसरे की तरफ़ देख रहे थे। समझ लिया कि अब एक ऐसा मौका आ पड़ा है कि नाम छुपाने से काम नहीं चलेगा। मैंने हिम्मत करके इंस्पेक्टर से कहा, ''जनाब, आप भूलते हैं। मेरा नाम देवेंद्रनाथ है। मैं यूनियन थिएटर का मालिक हूँ और आपका नाम हेमेंद्रनाथ है। घर भी कलकत्ते में है। नाहक़ हम लोगों को परेशान न कीजिए।''

उस पर हमारी बातों का जरा भी असर न हुआ। मेरी जेब में मेरे नाम के कार्ड थे। मैंने एक कार्ड निकालकर कहा, ''पता देखिए, मेरे नाम का कार्ड है।''

इंस्पेक्टर ने सिर हिलाकर कहा, ''इसमें क्या रखा है? इसमें तो कोई खास बात नहीं जो आपको बेकसूर साबित कर दे। फिर यह कौन कह सकता है कि आपने देवेंद्र नाम के कार्ड चुराकर नहीं लिए? मैं यह सब बातें नहीं सुनना चाहता। आप लोग मेरे साथ आएँ। मेरे सिपाही बाहर खड़े हैं। थाने में चलकर कहिए। चलिए-चलिए उठिए।''

यह कहकर वह मेरी तरफ़ बढ़ा। मैंने गुस्से से कहा, ''खबरदार, मेरे बदन से हाथ न लगाना वरना जहन्तुम-रसीद कर दूँगा (नरक में पहुँचा दूँगा)। मैं कोई ऐसा-वैसा आदमी नहीं हूँ। मैं यूनियन शिएटर का मालिक हूँ। मुझे मामूली आदमी मत समझना। खाक में मिला दूँगा। फिर पैरों पर गिरकर नाक रगड़ने पर भी चटनी किए बगैर न छोडूँगा।''

फिर भी वह अटल रहा। मेरी तरफ़ देखकर बोला, ''हरेंद्र का हुलिया बिलकुल आपसे मिलता है। ऊँचा कद, मूँछें मुँडी हुई, पेशानी ऊँची। फिर भुवन के हुलिए में सिर के बाल बड़े हुए, उम्र पचास साल, जिस्म निहायत मोटा, जो लक्षण मुझे बताए गए हैं, वह सब आपके साथी साहब से मिलते हैं। फिजूल का बखेड़ा न कीजिए, चुपचाप मेरे साथ चले आइए।''

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