कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 3 प्रेमचन्द की कहानियाँ 3प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसरा भाग
घर पहुँचकर श्रृद्धा अपने ऊपर के कमरे की ओर चली, किन्तु उसमें इतनी शक्ति न थी कि सीढ़ियाँ चढ़ सके। रस्सी को मजबूती से पकड़ती हुई किसी तरह अपने कमरे में पहुँची। हाय, आधा ही घंटे पूर्व यहाँ की एक-एक वस्तु पर प्रसन्नता, आह्लाद, आशाओं की छाप लगी हुई थी; पर अब सब-की-सब सिर धुनती हुए मालूम होती थीं। बड़े-बड़े सन्दूकों में जोड़े सजाये हुए रखे थे, उन्हें देखकर श्रृद्धा के हृदय में हूक उठी और वह गिर पड़ी, जैसे विहार करता हुआ और कुलाचें भरता हुआ हिरन तीर लग जाने से गिर पड़ता है।
अचानक उसकी दृष्टि उस चित्र पर जा पड़ी, जो आज तीन वर्ष से उसके जीवन का आधार हो रही थी। उस चित्र को उसने कितनी बार चूमा था; कितनी बार गले लगाया था, कितनी बार हृदय से चिपका लिया था।
वे सारी बातें एक-एक करके याद आ रही थीं; लेकिन उनके याद करने का भी अधिकार उसे न था।
हृदय के भीतर एक दर्द उठा, जो पहले से कहीं अधिक प्राणांतकारी था ज़ो पहले से अधिक तूफान के समान भयंकर था। हाय ! उस मरनेवाले के दिल को उसने कितनी यंत्रणा पहुँचायी ! भगतराम के अविश्वास का यह जवाब, यह प्रत्युत्तर कितना रोमांचकारी और हृदय-विदारक था। हाय ! वह कैसे ऐसी निष्ठुर हो गयी ! उसका प्यारा उसकी नजरों के सामने दम तोड़ रहा था ! उसके लिए उसकी सान्त्वना के लिए एक शब्द भी मुँह से न निकला ! यही तो खून का असर है इसके अतिरिक्त और हो ही क्या सकता था। आज पहली बार श्रृद्धा को कोकिला की बेटी होने का पछतावा हुआ। वह इतनी स्वार्थरत, इतनी हृदयहीन है आज ही उसे मालूम हुआ। वह त्याग, वह सेवा, वह उच्चादर्श, जिस पर उसे घमंड था, ढहकर श्रृद्धा के सामने गिर पड़ा; वह अपनी ही दृष्टि में अपने को हेय समझने लगी। उस स्वर्गीय प्रेम का ऐसा नैराश्यपूर्ण उत्तर वेश्या की पुत्री के अतिरिक्त और कौन दे सकता है।
श्रृद्धा उसी समय कमरे से बाहर निकलकर, वायु-वेग से सीढ़ियाँ उतरती हुई नीचे पहुँची और भगतराम के मकान की ओर दौड़ी। वह आखिरी बार उससे गले मिलना चाहती थी, अन्तिम बार उसके दर्शन करना चाहती थी। वह अनंत प्रेम के कठिन बंधनों को निभायेगी और अंतिम श्वास तक उसी की ही बनकर रहेगी !
रास्ते में कोई सवारी न मिली। श्रृद्धा थकी जा रही थी। सिर से पाँव तक पसीने से नहाई हुई थी ! न मालूम कितनी बार वह ठोकर खाकर गिरी और फिर उठकर दौड़ने लगी ! उसके घुटनों से रक्त निकल रहा था, साड़ी कई जगह से फट गई थी, मगर उस वक्त अपने तन-बदन की सुध तक न थी। उसका एक-एक रोआँ सहऱ कंठ हो-होकर ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि उस प्रात:काल के दीपक की लौ थोड़ी देर और बची रहे। उनके मुँह से एक बार 'श्रृद्धा' का शब्द सुनने के लिए उसकी अंतरात्मा कितनी व्याकुल हो रही थी। केवल यही एक शब्द सुनकर फिर उसकी कोई भी इच्छा अपूर्ण न रह जायगी, उसकी सारी आशाएं सफल हो जायँगी, सारी साध पूर्ण हो जायगी।
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