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प्रेमचन्द की कहानियाँ 3

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9764
आईएसबीएन :9781613015018

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसरा भाग


रानी मनोरमा ने आज गुरु-दीक्षा ली थी। दिन-भर दान और व्रत में व्यस्त रहने के बाद मीठी नींद की गोद में सो रही थी। अकस्मात् उसकी ऑंखें खुलीं और ये मनोहर ध्वनियॉँ कानों में पहुँचीं। वह व्याकुल हो गयी - जैसे दीपक को देखकर पतंग; वह अधीर हो उठी, जैसे खॉँड़ की गंध पाकर चींटी। वह उठी और द्वारपालों एवं चौकीदारों की दृष्टियॉँ बचाती हुई राजमहल से बाहर निकल आयी - जैसे वेदनापूर्ण क्रन्दन सुनकर आँखों से आँसू निकल जाते हैं।

सरिता-तट पर कँटीली झाड़ियाँ थीं। ऊँचे कगारे थे। भयानक जंतु थे। और उनकी डरावनी आवाजें! शव थे और उनसे भी अधिक भयंकर उनकी कल्पना। मनोरमा कोमलता और सुकुमारता की मूर्ति थी। परंतु उस मधुर संगीत का आकर्षण उसे तन्मयता की अवस्था में खींचे लिया जाता था। उसे आपदाओं का ध्यान न था।

वह घंटों चलती रही, यहॉँ तक कि मार्ग में नदी ने उसका गतिरोध किया।

मनोरमा ने विवश होकर इधर-उधर दृष्टि दौड़ायी। किनारे पर एक नौका दिखाई दी। निकट जाकर बोली- मॉँझी, मैं उस पार जाऊँगी, इस मनोहर राग ने मुझे व्याकुल कर दिया है।

मॉँझी- रात को नाव नहीं खोल सकता। हवा तेज है और लहरें डरावनी। जान-जोखिम है।

मनोरमा- मैं रानी मनोरमा हूँ। नाव खोल दे, मुँहमाँगी मजदूरी दूँगी।

मॉँझी- तब तो नाव किसी तरह नहीं खोल सकता। रानियों का इस में निबाह नहीं।

मनोरमा- चौधरी, तेरे पॉँव पड़ती हूँ। शीघ्र नाव खोल दे। मेरे प्राण खिंचे चले जाते हैं।

मॉँझी- क्या इनाम मिलेगा?

मनोरमा- जो तू मॉँगे।

‘मॉँझी- आप ही कह दें, गँवार क्या जानूँ, कि रानियों से क्या चीज मॉँगनी चाहिए। कहीं कोई ऐसी चीज न मॉँग बैठूँ, जो आपकी प्रतिष्ठा के विरुद्ध हो?

मनोरमा- मेरा यह हार अत्यन्त मूल्यवान है। मैं इसे खेवे में देती हूँ। मनोरमा ने गले से हार निकाला, उसकी चमक से मॉझी का मुख-मंडल प्रकाशित हो गया - वह कठोर, और काला मुख, जिस पर झुर्रियॉँ पड़ी थी।

अचानक मनोरमा को ऐसा प्रतीत हुआ, मानों संगीत की ध्वनि और निकट हो गयी हो। कदाचित कोई पूर्ण ज्ञानी पुरुष आत्मानंद के आवेश में उस सरिता-तट पर बैठा हुआ उस निस्तब्ध निशा को संगीत-पूर्ण कर रहा है। रानी का हृदय उछलने लगा। आह ! कितना मनोमुग्धकर राग था ! उसने अधीर होकर कहा- मॉँझी, अब देर न कर, नाव खोल, मैं एक क्षण भी धीरज नहीं रख सकती।

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