कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 4 प्रेमचन्द की कहानियाँ 4प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौथा भाग
हाँ, उनकी जवानी जा चुकी थी। इस आबे-हयात (सुधा-रस) में शराब के नशे से भी अधिक प्रभाव था। इससे पैदा होने वाला प्रभाव धीरे-धीरे समाप्त हो रहा था। बुढ़ापे ने फिर उन पर अपना स्याह लबादा डाल दिया था। चंचलकुँवर ने विवशता की दशा में अपना चेहरा जुड़ी हुई अँगुलियों से ढक लिया। उसके दिल में तीव्र इच्छा पैदा हुई कि जब हुस्न ही न रहा तो क्यों न इस पर कफ़न का पर्दा पड़ जाए। सदुपदेश का यही एक हुस्न उसमें बाक़ी रह गया था।
एक लम्हें की खामोशी के बाद डॉक्टर घोष ने फ़रमाया- ''दोस्तो! अफ़सोस है कि आप फिर बूढ़े हो गए। देखिए, आबे-हयात से जमीन तर है, लेकिन अब मुझे इसका गम नहीं, क्योंकि अगर चश्मे-हयात (अमृत. धार) मेरे दरवाजे ही पर लहरें मारे तो भी मैं उससे अपने होंठ न तर करूँ, चाहे लम्हों के तदले उसका नशा बरसों तक क्यों न क़ायम रहे। आप लोगों से आज मुझे भी शिक्षा हासिल हुई है।''
लेकिन डॉक्टर साहब के मित्रों को यह शिक्षा न मिली। उन्होंने चश्मे-हयात के सफर का पक्का इरादा किया, जहाँ वह सुबह-दोपहर-शाम इच्छानुसार आबे-हयात (सुधा-रस) पिया करें और सदाबहार जवानी का लुत्फ उठाएँ।
4. आभूषण
आभूषणों की निंदा करना हमारा उद्देश्य नहीं। हम असहयोग का उत्पीड़न सह सकते हैं, पर ललनाओं के निर्दय, घातक वाग्वाणों को नहीं ओज सकते। तो भी इतना अवश्य कहेंगे कि इस तृष्णा की पूर्ति के लिए जितना त्याग किया जाता है, उसका सदुपयोग करने से महान् पद प्राप्त हो सकता है।
यद्यपि हमने किसी रूपहीना महिला को आभूषणों की सजावट से रूपवती होते नहीं देखा, तथापि हम यह मान लेते हैं कि रूप के लिए आभूषणों की उतनी जरूरत है, जितनी घर के लिए दीपक की; किंतु शारीरिक शोभा के लिए हम मन को कितना मलिन, चित्त को कितना अशांत और आत्मा को कितना कलुषित बना लेते हैं, इसका हमें कदाचित् ज्ञान नहीं होता। इस दीपक की ज्योति में आँखें धुँधली हो जाती हैं। यह चमक-दमक कितनी ईर्ष्या, कितने द्वेष, कितनी प्रतिस्पर्द्धा, कितनी दुश्चिंता और कितनी दुराशा का कारण है, इसकी केवल कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इन्हें भूषण नहीं, दूषण कहना अधिक उपयुक्त है। नहीं तो यह कब हो सकता था कि कोई नववधू, पति के घर आने के तीसरे ही दिन, अपने पति से कहती थी कि मेरे पिता ने तुम्हारे पल्ले बाँधकर मुझे तो कुएँ में धकेल दिया।
शीतला आज अपने गाँव के ताल्लुकेदार कुँवर सुरेशसिंह की नवविवाहिता वधू को देखने गयी थी ! उसके सामने ही वह मन्त्र-मुग्ध-सी हो गई। बहू के रूप में लावण्य पर नहीं, उसके आभूषणों की जगमगाहट पर उसकी टकटकी लगी रही। और, वह जब से लौटकर घर आयी, उसकी छाती पर साँप लोटता रहा। अंत, को ज्यों ही उसका पति घर आया, वह उस पर बरस पड़ी और दिल में भरा हुआ गुबार पूर्वोक्त शब्दों में निकल पड़ा। शीतला के पति का नाम विमलसिंह था। उसके पुरखे किसी जमाने में इलाकेदार थे। इस गाँव पर भी उन्हीं का सोलहों आने अधिकार था। लेकिन अब इस घर की दशा हीन हो गई है। सुरेशसिंह के पिता जमींदारी के काम में दक्ष थे। विमलसिंह का सब इलाका किसी-न-किसी प्रकार उसके हाथ आ गया। विमल के पास सवारी का टट्टू भी न था; उसे दिन में दो बार भोजन मुश्किल से मिलता था। उधर सुरेश के पास हाथी मोटर और कई घोड़े भी थे; दस-पाँच बाहर के आदमी नित्य द्वार पर खड़े रहते थे। पर इतनी विषमता होने पर भी दोनों में भाईचारा निभाया जाता था, शादी-ब्याह में मुंडन-छेदन में परस्पर आना-जाना होता रहता था।
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