कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 4 प्रेमचन्द की कहानियाँ 4प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौथा भाग
सुरेश समझ गये कि मंगला को कल की बात लग गई; पर उन्होंने उठकर कुछ पूछने की, मनाने की, या समझाने की चेष्टा न की। यह मेरा अपमान कर रही है; मेरा सिर नीचा कर रही है। जहाँ चाहे जाय। मुझसे कोई मतलब नहीं। यों बिना कुछ पूछे-पाछे चले जाने का अर्थ यह है कि मैं इसका कोई नहीं। फिर मैं इसे रोकने वाला कौन?
वह यों ही जड़वत् पड़े रहे, और मंगला चली गई। उनकी तरफ मुँह उठा कर भी न ताका।
मंगला पाँव-पैदल चली जा रही थी। एक बड़े ताल्लुकेदार की औरत के लिए यह मामूली बात न थी। हर किसी की हिम्मत न पड़ती कि उसे कुछ कहे। पुरुष उसकी राह छोड़कर किनारे खड़े हो जाते थे। नारियाँ द्वार पर खड़ी करुण कौतूहल से देखती थीं और आँखों से कहती थीं–हा निर्दयी पुरुष ! इतना भी न हो सका कि डोले पर तो बैठा देता।
इस गाँव से निकलकर मंगला उस गाँव में पहुँची, जहाँ शीतला रहती थी। शीतला सुनते ही द्वार पर आकर खड़ी हो गई और मंगला से बोली– बहन, जरा आकर दम ले लो।
मंगला ने अन्दर जाकर देखा, तो मकान जगह-जगह से गिरा हुआ था। दालान में एक वृद्धा खाट पर पड़ी थी। चारों ओर दरिद्रता के चिन्ह दिखाई देते थे।
शीतला ने पूछा– यह क्या हुआ?
मंगला– जो भाग्य में लिखा था।
शीतला– कुँवरजी ने कुछ कहा-सुना क्या?
मंगला– मुँह से कुछ न कहने पर भी तो मन की बात छिपी नहीं रहती।
शीतला– अरे, तो क्या अब यहाँ तक नौबत आ गई ! दुःख की अंतिम दशा संकोचहीन होती है।
मंगला ने कहा–चाहती, तो अब भी पड़ी रहती। उसी घर में जीवन कट जाता। पर जहाँ प्रेम नहीं, मान नहीं, वहाँ अब नहीं रह सकती।
शीतला– तुम्हारा मायका कहाँ है?
मंगला– मायके कौन मुँह लेकर जाऊँगी?
शीतला– तब कहाँ जाओगी?
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