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प्रेमचन्द की कहानियाँ 4

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9765
आईएसबीएन :9781613015025

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौथा भाग


शीतला ने उत्तर दिया– भैया, क्षमा करो। जब तक जीऊँगी, तुम्हारा यश गाऊँगी। तुमने मेरी डूबती नाव पार लगा दी।

कई महीने बीत गए। संध्या का समय था। शीतला अपनी मैना को चारा चुगा रही थी। उसे सुरेश नैपाल से उसी के वास्ते लाए थे। इतने में सुरेश आ कर आँगन में बैठ गए।

शीतला ने पूछा– कहाँ से आते हो भैया?

सुरेश गया था जरा थाने। कुछ पता चला। रंगून में पहले कुछ पता मिला था। बाद को मालूम हुआ कि वह कोई और आदमी है। क्या करूँ? इनाम और बढ़ा दूँ?

शीतला– तुम्हारे पास रुपये बढे़ हैं, तो फूँको। उनकी इच्छा होगी, तो आप ही आवेंगे।

सुरेश–एक बात पूछूँ, बतलाओगी? किस बात पर तुमसे रूठे थे?

शीतला–कुछ नहीं, मैंने यही कहा था कि मुझे गहने बनवा दो। कहने लगे मेरे पास है क्या। मैंने कहा (लजाकर), तो ब्याह क्यों किया? बस, बातों-ही-बातों में तकरार मान गए।

इतने में शीतला की सास आ गई। सुरेश ने शीतला की माँ और भाईयों को उनके घर पहुँचा दिया था, इसलिए यहाँ अब शांति थी। सास ने बहू की बात सुन ली थी। कर्कश स्वर से बोली– बेटा, तुमसे क्या परदा है। यह महारानी देखने ही को गुलाब का फूल है, अंदर सब कांटे हैं। यह अपने बनाव-सिंगार के आगे विमल की बात ही न पूछती थी। बेचारा इस पर जान देता था; पर इसका मुँह ही न सीधा होता था। प्रेम तो इसे छू नहीं गया। अंत को उसे देश से निकालकर इसने दम लिया।

शीतला ने रुष्ट होकर कहा– क्या वही अनोखे धन कमाने निकले हैं? देश-विदेश जाना मरदों का काम ही है।

सुरेश– योरप में तो धन भोग के सिवा स्त्री-पुरुष में कोई सम्बन्ध ही नहीं होता। बहन ने योरप में जन्म लिया होता, तो हीरे-जवाहिर से जगमगाती होतीं। शीतला, अब तुम ईश्वर से यही कहना कि सुंदरता देते हो तो योरप में जन्म दो।

शीतला ने व्यथित होकर कहा– जिनके भाग्य में लिखा है, वे यहीं सोने से लदी हुई हैं। मेरी भाँति सभी के करम थोड़े ही फूट गए हैं।

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