कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 4 प्रेमचन्द की कहानियाँ 4प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौथा भाग
रूपमणि सामने आकाश की ओर देख रही थी। नीले आकाश में एक छायाचित्र-सा नजर आ रहा था - दुर्बल, सूखा हुआ नग्न शरीर, घुटनों तक धोती, चिकना सिर, पोपला मुँह, तप, त्याग और सत्य की सजीव मूर्ति।
आनन्द ने फिर कहा- अगर मुझे मालूम हो, कि मेरे रक्त से देश का उद्धार हो जाएगा, तो मैं आज उसे देने को तैयार हूँ; लेकिन मेरे जैसे सौ-पचास आदमी निकल ही आएँ, तो क्या होगा? प्राण देने के सिवा और तो कोई प्रत्यक्ष फल नहीं दीखता।
रूपमणि अब भी वही छायाचित्र देख रही थी। वही छाया मुस्करा रही थी, सरल मनोहर मुस्कान, जिसने विश्व को जीत लिया है।
आनन्द फिर बोला- जिन महाशयों को परीक्षा का भूत सताया करता है, उन्हें देश का उद्धार करने की सूझती है। पूछिए, आप अपना उद्धार तो कर ही नहीं सकते, देश का क्या उद्धार कीजिएगा? इधर फेल होने से उधर के डण्डे फिर भी हलके हैं।
रूपमणि की आँखें आकाश की ओर थीं। छायाचित्र कठोर हो गया था।
आनन्द ने जैसे चौंककर कहा- हाँ, आज बड़ी मजेदार फिल्म है। चलती हो? पहले शो में लौट आएँ।
रूपमणि ने जैसे आकाश से नीचे उतरकर कहा- नहीं, मेरा जी नहीं चाहता।
आनन्द ने धीरे से उसका हाथ पकडक़र कहा- तबीयत तो अच्छी है?
रूपमणि ने हाथ छुड़ाने की चेष्टा न की। बोली- हाँ, तबीयत में हुआ क्या है?
‘तो चलती क्यों नहीं?’
‘आज जी नहीं चाहता।’
‘तो फिर मैं भी न जाऊँगा।’
‘बहुत ही उत्तम, टिकट के रूपये काँग्रेस को दे दो।’
‘यह तो टेढ़ी शर्त है; लेकिन मंजूर!’
‘कल रसीद मुझे दिखा देना।’
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