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प्रेमचन्द की कहानियाँ 5

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :220
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9766
आईएसबीएन :9781613015032

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पाँचवां भाग


लाला करोड़ीमल शबाब में एक सम्पन्न व्यापारी थे, मगर उन्होंने अपनी सारी दौलत सट्टे में उड़ा दी थी और अब सिर्फ़ शिष्ट भिक्षावृत्ति पर गुज़ारा करते थे। ठाकुर विक्रमसिंह भोग-विलास और आनंद के बंदे थे। उन्होंने अपनी दौलत ही नहीं अपनी सेहत भी भोग-लिप्साओं पर क़ुर्वान कर दी थी और अब उनका ज़िस्म रोगों का केंद्र बना हुआ था। वह बहुत परेशान और उदास मन रहा करते थे। बाबू दयाराम किसी ज़माने में वकील थे और क़ौमी तहरीकों में भी कुछ हिस्सा लिया था, मगर किसी-न-किसी वजह से वह बदनाम हो गए थे और अब कोई उनके क़रीब न फटकता था। नाकामी में पड़े दिन काट रह थे। रही चंचलकुँवर - किसी ज़माने में उनके हुस्न की शोहरत थी। बहुत अर्से से वह पवित्र स्थानों की तीर्थ-यात्रा करने में व्यस्त थीं। नगर के सम्मानित व्यक्ति यहाँ तक कि उनके नजदीकी रिश्तेदार भी उनसे बचकर रहते थे। करोड़ीमल, दयाराम, विक्रमसिंह - तीनों व्यक्ति किसी जमाने में चंचलकुँवर के प्रेमी थे। यहाँ तक कि एक बार परस्पर लाग-डाँट के कारण उनमें ख़ून-खराबे की नौबत भी आ चुकी थी, मगर वे पिछली बातें आई-गई हो गई थीं। उनकी याद भी कष्टप्रद हो गई थी।

डॉक्टर घोष उन आदमियों को बैठने का इशारा करके बोले- ''दोस्तो ! आपको मालूम है कि मैं अपना वक्त छोटे-मोटे तज़ुर्बात करने में सर्फ़ किया करता हूँ। आज मुझे एक तज़ुर्बे में आपकी मदद की ज़रूरत है।''

अगर कही बातों पर एतबार किया जाए तो डॉक्टर घोष की लैबोरेटरी एक अजूबा चीज़ थी। कमरा अंधकार, पुरानी किस्म का था। मकड़ियों के जाले जो खिड़कियों पर पर्दे का काम दे रहे थे और फर्श पर बरसों की गर्द जमी हुई थी। दीवारों से मिली हुई कई साखू की अलमारियाँ थीं। उनमें सजिल्द किताबें चुनी हुई थीं। बीच की अलमारी में भैरव की एक मूरत रखी हुई थी। कुछ लोगों का ख़्याल था कि मुशक़िल में डॉक्टर साहब इसी मूरत से सलाह किया करते थे। कमरे के सबसे अँधेरे कोने में एक ऊँची-पतली अलमारी थी। उसमें से इंसान का अस्थि-पंजर ढाँचा कुछ-कुछ नज़र आता था। उसी के क़रीब दो अलमारियों के बीच में एक धुँधला-सा आइना रखा हुआ था, जिसका सुनहरा चौखटा मैला हो रहा था। कहा जाता था कि डॉक्टर साहब के स्वास्थ्य-लाभ कराने वाले हाथ से मरे हुए मरीजों की रूहें इसी आईने में रहती थीं और जब कभी वे आईने की तरफ़ देखते थे तो वे सब-की-सब उनकी तरफ़ घूरने लगती थीं। कमरे की दूसरी तरफ़ एक हसीना की आदमकद तस्वीर थी, मगर समय बीतने से चेहरे और कपड़े का रंग उड़ गया था। पचास बरस का अर्सा हुआ डॉक्टर साहब ने इसी हसीना से शादी करने की तजवीज़ की थी, मगर शादी के चंद रोज़ पहले वह बीमार पड़ी और अपने अभिलाषी डॉक्टर की दवा खाकर इस दुनिया से चल बसी थी। प्रयोगशाला की सबसे अजीब चीज का ज़िक्र करना अभी बाक़ी है। यह एक पुरानी जिल्द की मोटी किताब थी। इस किताब का नाम किसी को न मालूम था, लेकिन लोग यह जानते थे कि यह जादू की किताब है। एक बार नौकरों ने गर्द झाड़ने के लिए इस किताब को उठाया था। किताब के उठाते ही अलमारी में रखा हुआ अस्ति-पंजर काँप उठा, हसीना की तस्वीर एक क़दम आगे बढ़ गई और अत्यंत भयानक सूरतें आईने में झाँकने लगीं। इतना ही नहीं, भैरव की मूरत के तेवर बदल गए और उसके मुँह से 'बस करो, बस करो' की आवाज़ निकलने लगी थी।

डॉक्टर घोष की ज़बान से तजुर्बे का ज़िक्र सुनकर उनके चारों दोस्तों ने समझा कि या तो हमें हवा से खाली शीशे की नली में किसी चूहे की मौत का तमाशा दिखाया जाएगा, या खुर्दबीन से मकड़ी के जाले का अनुशीलन करना होगा, या किसी की और कोई वर्णनातीत बेतुकी बात होगी, क्योंकि ऐसे ही तजुर्बात को दिखाने के लिए डॉक्टर साहब पहले भी बीसियों बार अपने दोस्तों को दिक़ कर चुके थे। उन्हें इस निर्णायक प्रयोग से कुछ ज़्यादा शौक न पैदा हुआ। मगर डॉक्टर साहब उनके जवाब का इंतजार किए बग़ैर उठ खड़े हुए और लँगड़ाते हुए कमरे के दूसरे कोने से वही मोटी किताब उठा लाए जो आम भाषा में जादू की किताब के नाम से मशहूर थी। उन्होंने इस किताब को खोला और पृष्ठों में से एक गुलाब का फूल निकाला, जो कभी सुर्ख़ होगा, पर उस वक़्त मटियाला हो रहा था। उसकी पंखुड़ियाँ ऐसी खुश्क हो गई थीं, गोया छूते ही चूर-चूर हो जाएँगी।

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