कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 5 प्रेमचन्द की कहानियाँ 5प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पाँचवां भाग
‘मैं अपने घर में यह कोलाहल न मचने दूँगा।’
‘तो मेरा घर कहीं और है?’
सुरेशसिंह इसका उत्तर न देकर बोले– इन सबसे कह दो, फिर किसी वक्त आवें।
मंगला– इसलिए कि तुम्हें इनका आना अच्छा नहीं लगता?
‘हाँ, इसलिए !’
‘तुम क्या सदा वही करते हो, जो मुझे अच्छा लगे? तुम्हारे यहाँ मित्र आते हैं, हँसी-ठट्टे की आवाज अंदर, सुनाई देती है। मैं कभी कहती कि इन लोगों का आना बंद कर दो। तुम मेरे कामों में दस्तंदाजी क्यों करते हो?'
सुरेश ने तेज होकर कहा– इसलिए कि मैं घर का स्वामी हूँ।
मंगला– तुम बाहर के हो, यहाँ मेरा अधिकार है।
सुरेश– क्यों व्यर्थ की बक-बक करती हो? मुझे चिढ़ाने से क्या मिलेगा?
मंगला जरा देर चुप खड़ी रही। वह पति के मनोगत भावों की मीमांसा कर रही थी। फिर बोली– अच्छी बात है। अब इस घर में मेरा कोई अधिकार नहीं, तो न रहूँगी। अब तक भ्रम में थी। आज तुमने वह भ्रम मिटा दिया। मेरा इस घर पर अधिकार कभी नहीं था। जिस स्त्री का पति के हृदय पर अधिकार नहीं, उसका उसकी सम्पत्ति पर भी कोई अधिकार नहीं हो सकता।
सुरेश ने लज्जित होकर कहा–बात का बतंगड़ क्यों बनाती हो ! मेरा यह मतलब न था। कुछ-का-कुछ समझ गईं।
मंगला– मन की बात आदमी के मुँह से अनायास ही निकल जाती है। फिर सावधान होकर हम अपने भावों को छिपा लेते हैं।
सुरेश को अपनी असज्जनता पर दुख हुआ, पर इस भय से कि मैं इसे जितना ही मनाऊँगा, उतना ही यह जली-कटी सुनावेगी, उसे वहीं छोड़कर बाहर चले आए।
प्रातःकाल ठंडी हवा चल रही थी। सुरेश खुमारी में पड़े हुए स्वप्न देख रहे थे कि मंगला सामने से चली जा रही है। चौंक पड़े। देखा, द्वार पर सचमुच मंगला खड़ी है। घर की नौकरानियाँ आँचल से आँखें पोछ रहीं है। कई नौकर आस-पास खड़े हैं। सभी की आँखें सजल और मुख उदास हैं। मानो बहू बिदा हो रही है।
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