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प्रेमचन्द की कहानियाँ 5

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :220
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9766
आईएसबीएन :9781613015032

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पाँचवां भाग


एक दिन वह इसी नैराश्य की अवस्था में द्वार पर खड़ी थी। मुसीबत में, चित्त की उद्विग्नता में, इंतजार में, द्वार से प्रेम-सा हो जाता है। सहसा उसने बाबू सुरेशसिंह को सामने से घोड़े पर जाते देखा। उसकी आँखें उसकी ओर फिरीं। आँखें मिल गईं। वह झिझकर पीछे हट गई। किवाड़े बन्द कर लिए। कुँवर साहब आगे बढ़ गये। शीतला को खेद हुआ कि उन्होंने मुझे देख लिया। मेरे सिर पर साड़ी फटी हुई थी, चारों तरफ उसमें पेबंद लगे हुए थे! वह अपने मन में न जाने क्या कहते होंगे !

कुँवर साहब को गाँववालों से विमलसिंह के परिवार के कष्टों खबर मिली थी। वह गुप्त रूप से उनकी कुछ सहायता करना चाहते थे। पर शीतला को देखते ही संकोच ने उन्हें ऐसा दबाया कि द्वार पर एक क्षण भी न रुक सके। मंगला के गृहत्याग के तीन महीने बाद आज वह पहली बार घर से निकले थे। मारे शर्म के बाहर बैठना छोड़ दिया था।
इसमें संदेह नहीं कि कुँवर साहब मन में शीतला के रूप-रस का आस्वादन करते थे। मंगला के जाने के बाद उनके हृदय में एक विचित्र दुष्कामना जग उठी। क्या किसी उपाय से यह सुन्दरी मेरी नहीं हो सकती? विमल का मुद्दत से पता नहीं। बहुत सम्भव है कि वह अब संसार में न हो किंतु वह दुष्कल्पना को विचार से दबाते रहते थे। शीतला की विपत्ति की कथा सुनकर भी वह उसकी सहायता करते डरते थे। कौन जाने वासना यही वेष रखकर मेरे विचार और विवेक पर कुठाराघात न करना चाहती हो। अंत को लालसा की कपट-लीला उन्हें भुलावा दे ही गई। वह शीतला के घर उसका हाल-चाल पूछने गये। मन में तर्क किया– यह कितना घोर अन्याय है कि एक अबला ऐसे संकट में हो, और मैं उसकी बात भी न पूछूँ? पर वहाँ से लौटे, तो बुद्धि और विवेक की रस्सियाँ टूट गई थीं, नौका मोह और वासना के अपार सागर में डुबकियाँ खा रही थी। आह ! यह मनोहर छवि ! यह अनुपम सौंदर्य !

एक क्षण में उन्मतों की भाँति बकने लगे– यह प्राण और शरीर तेरी भेंट करता हूँ। संसार हँसेगा, हँसे। महापाप है, तो कोई चिंता नहीं; इस स्वर्गीय आनंद से मैं अपने को वंचित नहीं कर सकता। वह मुझसे भाग नहीं सकती। इस हृदय को छाती से निकालकर उसके पैरों पर रख दूँगा। विमल मर गया। नहीं मरा, तो अब मरेगा। पाप क्या है? कोई बात नहीं कमल कितना कोमल, कितना प्रफुल्ल, कितना ललित है ! क्या उसके अधरों...

अकस्मात् वह ठिठक गए, जैसे कोई भूली हुई बात याद आ जाय। मनुष्य में बुद्धि के अन्तर्गत एक अज्ञात बुद्धि होती है। जैसे रण-क्षेत्र में हिम्मत हारकर भागनेवाले सैनिकों को किसी गुप्त-स्थान से आने वाली कुमक सँभाल लेती है, वैसे ही इस अज्ञात बुद्धि ने सुरेश को सचेत कर दिया। वह सँभल गए। ग्लानि से उनकी आँखें भर आई। वह कई मिनट तक किसी दंडित कैदी की भाँति क्षुब्ध खड़े सोचते रहे। फिर विजय-ध्वनि से कह उठे– कितना सरल है। और इस विकार के हाथी को सिंह से नहीं, चिउँटी से मारूँगा। शीतला को एक बार ‘बहन’ कह देने से ही सब विकार शांत हो जाएगा। शीतला ! बहन ! मैं तेरा भाई हूँ।

उसी क्षण उन्होंने शीतला को पत्र लिखा– बहन, तुमने इतने कष्ट झेले पर मुझे खबर तक न दी। मैं कोई गैर तो नहीं था। मुझे इसका दुःख है। खैर, अब ईश्वर ने चाहा, तो तुम्हें कष्ट न होगा। इस पत्र के साथ उन्होंने नाज और रुपये भेजे।

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