कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 5 प्रेमचन्द की कहानियाँ 5प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पाँचवां भाग
गाड़ी आ गयी। मुसाफिर चढऩे-उतरने लगे। रूपमणि ने सजल नेत्रों से कहा- तुम मुझे नहीं ले चलोगे?
विशम्भर ने दृढ़ता से कहा- नहीं।
‘क्यों?’
‘मैं इसका जवाब नहीं देना चाहता!’
‘क्या तुम समझते हो, मैं इतनी विलासासक्त हूँ कि मैं देहात में रह नहीं सकती?’
विशम्भर लज्जित हो गया। यह भी एक बड़ा कारण था, पर उसने इनकार किया- नहीं, यह बात नहीं।
‘फिर क्या बात है? क्या यह भय है, पिताजी मुझे त्याग देंगे?’
‘अगर यह भय हो तो क्या वह विचार करने योग्य नहीं?’
‘मैं उनकी तृण बराबर परवा नहीं करती।’
विशम्भर ने देखा, रूपमणि के चाँद-से मुख पर गर्वमय संकल्प का आभास था। वह उस संकल्प के सामने जैसे काँप उठा। बोला- मेरी यह याचना स्वीकर करो, रूपमणि, मैं तुमसे विनती करता हूँ।
रूपमणि सोचती रही।
विशम्भर ने फिर कहा- मेरी खातिर तुम्हें यह विचार छोडऩा पड़ेगा।
रूपमणि ने सिर झुकाकर कहा- अगर तुम्हारा यह आदेश है, तो मैं मानूँगी विशम्भर! तुम दिल से समझते हो, मैं क्षणिक आवेश में आकर इस समय अपने भविष्य को गारत करने जा रही हूँ। मैं तुम्हें दिखा दूँगी, यह मेरा क्षणिक आवेश नहीं है, दृढ़ संकल्प है। जाओ; मगर मेरी इतनी बात मानना कि कानून के पंजे में उसी वक्त आना, जब आत्माभिमान या सिद्धान्त पर चोट लगती हो। मैं ईश्वर से तुम्हारे लिए प्रार्थना करती रहूँगी।
गाड़ी ने सीटी दी। विशम्भर अन्दर जा बैठा। गाड़ी चली, रूपमणि मानो विश्व की सम्पत्ति अंचल में लिये खड़ी रही।
रूपमणि के पास विशम्भर का एक पुराना रद्दी-सा फोटो अल्मारी के एक कोने में पड़ा हुआ था। आज स्टेशन से आकर उसने उसे निकाला और उसे एक मखमली फ्रेम में लगाकर मेज पर रख दिया। आनन्द का फोटो वहाँ से हटा दिया गया।
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