कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 5 प्रेमचन्द की कहानियाँ 5प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पाँचवां भाग
मुझे आम खाने से काम था, पेड़ गिनने से नहीं, चुपके से रुपये निकाले और लाकर उमापति को दे दिए। फिर लौटती बार आकर रुपये दे जाने का आश्वासन देकर वह चल दिए।
सातवें दिन शाम को वह घर से लौट आए। उनकी पत्नी और पुत्री भी साथ थी। मेरी पत्नी ने शक्कर और दही खिलाकर उनका स्वागत किया। ‘मुँह दिखाई’ के दो रुपये दिये। उनकी पुत्री को भी मिठाई खाने को दो रु. दिए। मैंने समझा था, उमापति आते-ही-आते मेरे रुपये गिनने लगेंगे, लेकिन उन्होंने पहर रात गये तक रुपयों का नाम न लिया। जब मैं घर में सोने गया तो बीबी से कहा– इन्होंने तो रुपये नहीं दिए जी!
पत्नी ने व्यंग्य से हँसकर कहा– तो क्या सचमुच तुम्हें आशा थी कि वह आते-ही-आते तुम्हारे हाथ में रुपये रख देंगे? मैंने तो तुमसे पहले ही कह दिया था कि फिर पाने की आशा से रुपये मत दो; यही समझ लो कि किसी मित्र को सहायतार्थ दे दिए। लेकिन तुम भी विचित्र आदमी हो।
मैं लज्जित और चुप रहा। उमापति दो दिन रहे। मेरी पत्नी उनकी यथोचित आदर-सत्कार करती रही। लेकिन मुझे उतना संतोष न था। मैं समझता था उन्होंने मुझे धोखा दिया।
तीसरे दिन प्रातःकाल वह चलने को तैयार हुए। मुझे अब भी आशा थी कि वह रुपये देकर जाएँगे। लेकिन जब उनकी नई राम कहानी सुनी तो सन्नाटे में आ गया। वह बिस्तरा बाँधते हुए बोले–बड़ा ही खेद है कि मैं अबकी बार आपके रुपये न दे सका। बात यह है कि मकान पर पिताजी से भेंट ही न हुई। वह तहसील-वसूल करने गाँव चले गये थे, और मुझे इतना अवकाश न था कि गाँव तक जाता। रेल का रास्ता नहीं है। बैलगाड़ियों पर जाना पड़ता है। इसलिए मैं एक दिन मकान पर रहकर ससुराल चला गया। वहाँ सब रुपये खर्च हो गए। बिदाई के रुपये न मिल जाते, तो यहाँ तक आना कठिन था। अब मेरे पास रेल का किराया तक नहीं है। आप मुझे २५ रुपये और दे दें। मैं वहाँ जाते ही जाते भेज दूँगा। मेरे पास इक्के तक का किराया नहीं है।
जी में तो आया कि टका-सा जवाब दे दूँ; पर इतनी अशिष्टता न हो सकी।
फिर पत्नी के पास गया और रुपये माँगे। अबकी उन्होंने बिना कुछ कहे-सुने रुपये निकालकर मेरे हवाले कर दिए। मैंने उदासीन भाव से रुपये उमापतिजी को दे दिए। जब उनकी अर्धांगिनी जीने से उतर गई, तो उन्होंने बिस्तर उठाया और मुझे प्रणाम किया। मैंने बैठे-बैठे सिर हिलाकर जवाब दिया। उन्हें सड़क तक पहुँचाने भी न गया।
एक सप्ताह बाद उमापतिजी ने लिखा– मैं कार्यवश बरार जा रहा हूँ। लौटकर रुपये भेजूँगा।
15 दिन बाद मैंने एक पत्र लिखकर कुशल-समाचार पूछे। कोई उत्तर न आया। 15 दिन बाद फिर रुपयों का तकाजा किया। उसका भी यही हाल! एक रजिस्ट्री पत्र भेजा। वह पहुँच गया, इसमें संदेह नहीं; लेकिन जवाब उसका भी न आया। समझ गया, समझदार जोरू ने जो कहा था, वह अक्षरशः सत्य था। निराश होकर चुप हो रहा।
इन पत्रों की चर्चा भी मैंने पत्नी से नहीं की, और न उसी ने कुछ इस बारे में पूछा।
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