कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 6 प्रेमचन्द की कहानियाँ 6प्रेमचंद
|
6 पाठकों को प्रिय 250 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छटा भाग
मॉँझी ने नाव खोल दी। तारा उस पार जा बैठी और नौका मंद गति से चलने लगी, मानों जीव स्वप्न-साम्राज्य में विचर रहा हो।
इसी समय एकादशी का चॉँद, पृथ्वी से उस पार, अपनी उज्ज्वल नौका खेता हुआ निकला और व्योम-सागर को पार करने लगा।
3. कजाकी
मेरी बाल-स्मृतियों में ‘कजाकी’ एक न मिटनेवाला व्यक्ति है। आज चालीस साल गुजर गए, कजाकी की मूर्ति अभी तक आँखों के सामने नाच रही है। मैं उन दिनों अपने पिता के साथ आजमगढ़ की एक तहसील में था। कजाकी जाति का पासी था; बड़ा ही हँसमुख, बड़ा ही साहसी, बड़ा ही जिंदादिल! वह रोज शाम को डाक का थैला लेकर आता, रात भर रहता और सबेरे डाक लेकर चला जाता। शाम को फिर उधर से डाक लेकर आ जाता। मैं दिन भर एक उद्विग्न दशा में उसकी राह देखा करता ज्यों ही चार बजते, व्याकुल सड़क पर आकर खड़ा हो जाता और थोड़ी देर में कजाकी कंधे पर बल्लम रखे, उसकी झुनझुनी बजाता, दूर से दौड़ता हुआ आता दिखलाई देता।
वह साँवले रंग का गठीला, लंबा जवान था।
शरीर साँचे में ऐसा ढला हुआ कि चतुर मूर्तिकार भी उसमें कोई कोई दोष न निकाल सकता। उसकी छोटी-छोटी मूँछें उसके सुडौल चेहरे पर बहुत ही अच्छी मालूम होती थीं। मुझे देखकर वह और तेज दौड़ने लगता। उसकी झुनझुनी और तेजी से बजने लगती और मेरे हृदय में और जोर से खुशी की धड़कन होने लगती। हर्षातिरेक में मैं भी दौड़ पड़ता और एक क्षण में कजाकी का कंधा मेरा सिंहासन बन जाता। वह स्थान मेरी अभिलाषाओं का स्वर्ग था।
स्वर्ग के निवासियों को भी शायद वह आंदोलित आनंद न मिलता होगा जो मुझे कजाकी के विशाल कंधों पर मिलता था। संसार मेरी आँखों में तुच्छ हो जाता और जब कजाकी मुझे कंधे पर लिए हुए दौड़ने लगता तब तो ऐसा मालूम होता मैं हवा के घोड़े पर उड़ा जा रहा हूँ।
कजाकी डाकखाने में पहुँचता तो पसीने से तर रहता। लेकिन आराम करने की आदत न थी। थैला रखते ही वह हम लोगों को लेकर किसी मैदान में निकल जाता। कभी हमारे साथ खेलता, कभी बिरहे, गाकर सुनाता और कभी कहानियाँ सुनाता। उसे चोरी और डाके, मारपीट, भूत-प्रेत की सैकड़ों कहानियाँ याद थीं। मैं वे कहानियाँ सुनकर विस्मय आनंद में मग्न हो जाता। उसकी कहानियों के चोर और डाकू सच्चे योद्धा होते थे, जो अमीरों को लूटकर दीन-दुखियों का पालन करते थे। मुझे उन पर घृणा के बदले श्रद्धा होती थी।
|