कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 6 प्रेमचन्द की कहानियाँ 6प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छटा भाग
कजाकी ने मुझे उठाकर कंधे पर बिठालते हुए कहा- वह चपरास किस काम की थी, भैया। वह तो गुलामी की चपरास थी, यह अपनी खुशी की चपरास है। पहले सरकार का नौकर था अब तुम्हारा नौकर हूँ।
यह कहते-कहते उसकी निगाह टोकरी पर पड़ी जो वहीं रक्खी थी, बोला- यह आटा कैसा है, भैया?
मैंने सकुचाते हुए कहा- तुम्हारे ही लिए तो लाया हूँ। तुम भूखे होगे। आज क्या खाया होगा?
कजाकी की आँखों में न देख सका, उसके कंधे पर बैठा हुआ था, हाँ उसकी आवाज से मालूम हुआ कि उसका गला भर आया है। बोला- भैया, क्या रूखी रोटियाँ खाऊँगा? दाल, नमक, घी-और तो कुछ नहीं है।
मैं अपनी भूल पर बहुत लज्जित हुआ, सच तो है, बेचारा रूखी रोटियाँ कैसे खाएगा? लेकिन नमक, दाल, घी, कैसे लाऊँ? अब तो अम्मा चौके में होंगी। आटा लेकर तो किसी तरह भाग आया था। (अभी तक मुझे न मालूम था कि मेरी चोरी पकड़ ली गई; आटे की लकीर ने सुराग दे दिया है)। अब ये तीन-तीन चीजे कैसे लाऊँगा? अम्माँ से माँगूँगा, तो कभी न देंगी। एक-एक पैसे के लिए तो घंटों रुलाती है, इतनी सारी चीजें क्यों देने लगी?
एकाएक मुझे एक बात याद आयी। मैंने अपनी किताबों के बस्ते में कई आने पैसे रख छोड़े थे। मुझे पैसे जमा करके रखने में आनंद आता था। मालूम नहीं अब वह आदत क्यों बदल गई। अब भी वही आदत होती तो शायद फाकेमस्त न रहता। बाबूजी मुझे प्यार तो कभी न करते थे; पर पैसे खूब देते थे; शायद अपने काम में व्यस्त रहने के कारण, मुझसे पिण्ड छु़ड़ाने के लिए, इसी नुस्खे को सबसे आसान समझते थे। इनकार करने में मेरे रोने और मचलने का भय था। इस बाधा को वह दूर ही से टाल देते थे।
अम्माँ जी का स्वभाव इसके ठीक प्रतिकूल था। उन्हें मेरे रोने और मचलने से किसी काम में बाधा पड़ने का भय न था। आदमी लेटे-लेटे दिन भर रोना सुन सकता है; हिसाब लगाते हुए जोर की आवाज से भी ध्यान बँट जाता है। अम्मा मुझे प्यार तो बहुत करती थीं, पर पैसे का नाम सुनते ही उनकी त्योरियाँ बदल जाती थीं, मेरे पास किताबें न थीं; हाँ बस्ता था, जिसमें डाकखाने के दो-चार फार्म तह करके पुस्तक के रूप में रक्खे हुए थे। मैंने सोचा, दाल नमक और घी के लिए क्या उतने पैसे काफी न होंगे? मेरी तो मुट्ठी में नहीं आते। यह निश्चय करके मैंने कहा- अच्छा, मुझे उतार दो, तो मैं दाल और नमक ला दूँ। मगर रोज आया करोगे न?
कजाकी- भैया, खाने को दोगे तो क्यों न आऊँगा?
मैंने कहा- मैं रोज खाने को दूँगा।
कजाकी बोला- तो मैं भी रोज आऊँगा।
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