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प्रेमचन्द की कहानियाँ 6

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9767
आईएसबीएन :9781613015049

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छटा भाग


बाबूजी ने कहा- कजाकी, तुम बहाल हो गए। अब कभी देर न करना। कजाकी रोता हुआ पिताजी के पैरों पर गिर पड़ा। मगर शायद मेरे भाग्य में दोनों सुख भोगना न लिखा था - मुन्नू मिला तो कजाकी छूटा; कजाकी आया तो मुन्नू हाथ से ऐसा गया कि आज तक उसके जाने का दुःख है।

मुन्नू मेरी ही थाली में खाता था। जब तक मैं खाने न बैठूँ वह भी कुछ न खाता था। उसे भात से बहुत ही रुचि थी, लेकिन जब तक खूब घी न पड़ा हो उसे संतोष न होता था। वह मेरे ही साथ सोता भी था, और मेरे ही साथ उठता भी। सफाई तो उसे इतनी पसंद थी कि मल-मूत्र त्याग करने के लिए घर से बाहर मैदान में निकल जाता था। कुत्तों से उसे चिड़ थी। कुत्तों को घर में न घुसने देता था। कुत्ते को देखते ही थाली से उठ जाता और उसे दौड़ाकर घर से बाहर निकाल देता था।

कजाकी को डाकखाने में छोड़कर जब मैं खाना खाने गया, तो मुन्नू भी आ बैठा। अभी दो-चार ही कौर खाये थे कि एक बड़ा-सा झबरा कुत्ता आंगन में दिखाई दिया। मुन्नू उसे देखते ही दौड़ा। दूसरे घर में जाकर कुत्ता चूहा हो जाता है। झबरा कुत्ता उसे आता देखकर भागा। मुन्नू को अब लौट आना चाहिए था। मगर वह कुत्ता उसके लिए यमराज का दूत था। मुन्नू को उसे घर से निकालकर ही  संतोष न हुआ। वह उसे रोज घर के बाहर मैदान में भी दौड़ाने लगा। मुन्नू को शायद ख्याल न रहा कि यहाँ मेरी अमलदारी नहीं है। वह उस क्षेत्र में पहुँच गया था, जहाँ झबरे का भी उतना ही  अधिकार था, जितना मुन्नू का।

मुन्नू कुत्ते को भगाते-भगाते कदाचित् अपने बाहुबल पर घमंड करने लगा था। वह यह न समझता था कि घर में उसकी पीठ पर घर के स्वामी का भय काम किया करता है। झबरे ने मैदान में आते ही उलटकर मुन्नू की गर्दन दबा दी बेचारे मुन्नू के मुँह से आवाज तक न निकली। जब पड़ोसियों ने शोर मचाया, तो मैं दौड़ा। देखा, तो मुन्नू मरा पड़ा है, और झबरे का कहीं पता नहीं।

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4. कप्तान साहब

जगत सिंह को स्कूल जाना कुनैन खाने या मछली का तेल पीने से कम अप्रिय न था। वह सैलानी, आवारा, घुमक्कड़ युवक था। कभी अमरूद के बागों की ओर निकल जाता और अमरूदों के साथ माली की गालियॉँ बड़े शौक से खाता। कभी दरिया की सैर करता और मल्लाहों को डोंगियों में बैठकर उस पार के देहातों में निकल जाता। गालियॉँ खाने में उसे मजा आता था। गालियॉँ खाने का कोई अवसर वह हाथ से न जाने देता। सवार के घोड़े के पीछे ताली बजाना, एक्को को पीछे से पकड़ कर अपनी ओर खींचना, बूढों की चाल की नकल करना, उसके मनोरंजन के विषय थे। आलसी काम तो नहीं करता; पर दुर्व्यसनों का दास होता है, और दुर्व्यसन धन के बिना पूरे नहीं होते। जगतसिंह को जब अवसर मिलता घर से रुपये उड़ा ले जाता। नकद न मिले, तो बरतन और कपड़े उठा ले जाने में भी उसे संकोच न होता था। घर में शीशियॉँ और बोतलें थीं, वह सब उसने एक-एक करके गुदड़ी बाजार पहुँचा दी। पुराने दिनों की कितनी चीजें घर में पड़ी थीं, उसके मारे एक भी न बची। इस कला में ऐसा दक्ष और निपुण था कि उसकी चतुराई और पटुता पर आश्चर्य होता था। एक बार बाहर ही बाहर, केवल कार्निसों के सहारे अपने दो-मंजिला मकान की छत पर चढ़ गया और ऊपर ही से पीतल की एक बड़ी थाली लेकर उतर आया। घर वालों को आहट तक न मिली।

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