कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 6 प्रेमचन्द की कहानियाँ 6प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छटा भाग
दंगल- ''कहो तो आज संदेशा भेज दूँ।''
शिवनाथ- ''भेज दो, मगर होशियार रहना।''
जगत के पास पैग़ाम पहुँचा तो उसका चेहरा खिल उठा। दिल की खुशी दबाए न दबी। मुद्दतों की आरजू पूरी हुई। संदेशिए से कहा- ''गुरुजी से हमारा पालागन कहना। हम तो उनके चाकर हैं। जब हुक्म हो, हाजिर हों। आपस में कपट क्यों?'' तीसरे दिन एक नदी के किनारे दोनों डाकू जगतसिंह से मिले। दंगल उसे देखकर चौंक पड़ा और ऐसा घबराया गोया गिर पड़ेगा। शिवनाथ भी चौंका, मगर सँभल गया। यह जगतसिंह और कोई न था, यह वही धनीसिंह ठाकुर था।
धनीसिंह ने कहा- ''गुरु, मुझे पहचान गए न?''
शिवनाथ- ''हाँ, पहचान गया। यह बाना कब से लिया?''
धनीसिंह- ''उसी दिन से, जब आपके दर्शन हुए।''
शिवनाथ- ''मेरी तरफ़ से दिल साफ है न? पिछली बातें भूल गए या नहीं?''
दंगल- ''अगर न भूले हो तो फिर हमारा-तुम्हारा मेल न होगा।''
धनीसिंह ने संजीदगी के साथ कहा- ''गुरु, शेरों के दिल में कीना नहीं होता।''
शिवनाथ- ''हम-तुम अब भाई हैं।''
धनीसिंह- ''मैं ऐसा ही समझता हूँ। आओ, गले मिल जाएँ। जो कुछ पुरानी कसर हो, निकल जाए।''
तीनों आदमी परस्पर गले मिले और रात-भर खूब जश्न मनाया गया।
साल-भर और गुजरा। तीनों डाकुओं ने जिले को तबाह कर दिया। उनके लिए रात-दिन, अँधेरे-उजाले की क़ैद न थी। वे दिन-दहाड़े लूटते और पहले से न्योता देकर। दुष्ट और प्रलय के साथ काली बला और आ मिली। मेंह और आँधी के साथ बिजली का याराना हो गया।
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