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प्रेमचन्द की कहानियाँ 7

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9768
आईएसबीएन :9781613015056

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सातवाँ भाग


‘वापसी के समय हरगिज न छोडूंगा।’

‘मेरे जीते-जी तुम स्त्री पर हाथ नहीं उठा सकते।’

‘मैं इस मामले मे तुम्हारी पाबन्दियों का गुलाम नहीं हो सकता।’

माँ ने कुछ जवाब न दिया। इस नामर्दों जैसी बात से उसकी ममता टुकड़े-टुकड़े हो गयी। मुश्किल से बीस मिनट बीते होंगे कि वहीं मोटर दूसरी तरफ़ से आती दिखायी पड़ी। धर्मवीर ने मोटर को गौर से देखा और उछलकर बोला- लो अम्मां, अबकी बार साहब अकेला है। तुम भी मेरे साथ निशाना लगाना।

माँ ने लपककर धर्मवीर का हाथ पकड़ लिया और पागलों की तरह जोर लगाकर उसका रिवाल्वर छीनने लगी। धर्मवीर ने उसको एक धक्का देकर गिरा दिया और एक कदम रिवाल्वर साधा। एक सेकेण्ड में माँ उठी। उसी वक्त गोली चली। मोटर आगे निकल गयी, मगर माँ जमीन पर तड़प रही थी।

धर्मवीर रिवाल्वर फेंककर माँ के पास गया और घबराकर बोला- अम्मां, क्या हुआ? फिर यकायक इस शोकभरी घटना की प्रतीति उसके अन्दर चमक उठी-वह अपनी प्यारी माँ का कातिल है। उसके स्वभाव की सारी कठोरता और तेजी और गर्मी बुझ गयी। आंसुओं की बढ़ती हुई थरथरी को अनुभव करता हुआ वह नीचे झुका, और माँ के चेहरे की तरफ आंसुओं में लिपटी हुई शर्मिंन्दगी से देखकर बोला- यह क्या हो गया अम्मां! हाय, तुम कुछ बोलतीं क्यों नहीं! यह कैसे हो गया। अंधेरे में कुछ नज़र भी तो नहीं आता। कहाँ गोली लगी, कुछ तो बताओ। आह! इस बदनसीब के हाथों तुम्हारी मौत लिखी थी। जिसको तुमने गोद में पाला उसी ने तुम्हारा खून किया। किसको बुलाऊँ, कोई नजर भी तो नहीं आता।

माँ ने डूबती हुई आवाज में कहा- मेरा जन्म सफल हो गया बेटा। तुम्हारे हाथों मेरी मिट्टी उठेगी। तुम्हारी गोद में मर रही हूँ। छाती में घाव लगा है। ज्यों तुमने गोली चलायी, मैं तुम्हारे सामने खड़ी हो गयी। अब नहीं बोला जाता, परमात्मा तुम्हें खुश रखे। मेरी यही दुआ है। मैं और क्या करती बेटा। माँ की आबरू तुम्हारे हाथ में है। मैं तो चली। क्षण-भर बाद उस अंधेरे सन्नाटे में धर्मवीर अपनी प्यारी माँ के नीमजान शरीर को गोद में लिये घर चला तो उसके ठंडे तलुओं से अपनी ऑंसू-भरी ऑंखें रगड़कर आत्मिक आह्लाद से भरी हुई दर्द की टीस अनुभव कर रहा था।

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4. क़ातिल की माँ

रात को रामेश्वरी सोई तो क्या ख्वाब देखती है कि विनोद ने किसी ऑफ़िसर को मार डाला है और कहीं गायब हो गया है। पुलिस उसकी तलाश में बेगुनाहों को मारपीट रही है और तमाम शहर में शोर और फ़साद बरपा है। इसी घबराहट में उसकी आँख खुल गई। देखा तो विनोद सो रहा था। उठकर विनोद के पास गई। प्यार से सर पर हाथ फेरने लगी और सोचने लगी, मैंने क्या बेसिर-पैर का ख्वाब देखा। उसके साथ कुछ चिंतित भी हो गई। फिर लेटी, मगर नींद न आई। दिल में एक खौफ समा गया था।

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