कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 7 प्रेमचन्द की कहानियाँ 7प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सातवाँ भाग
वहाँ दरयाफ्त करने पर मालूम हुआ कि आज विनोद सुबह से एक बार भी नहीं आया। रामेश्वरी का दिल किसी नामालूम खौफ़ से परेशान हो गया और वह ख्वाब साकार होकर उसे डसने लगा। कुछ देर तक वह चेतनाशून्य चुपचाप खड़ी रही। फिर ख्याल आया, शायद घर गया हो। फ़ौरन घर लौटी, लेकिन यहाँ विनोद का अब तक पता न था।
ज्यों-ज्यों अँधेरा होता जाता था उसकी जान खुश्क होती जाती थी। इस पर दाई आँख भी फड़कने लगी। ख्यालात और भी खौफ़नाक सूरत अख्तियार करने लगे। कोई देवी या देवता न बचा, जिसकी उसने मन्नत न मानी हो। कभी सहन में आकर बैठ जाती, कभी दरवाजे पर जाकर खड़ी होती। उसका दिल किसी भयभीत पक्षी की मानिन्द कभी घोंसले में आ बैठता और कभी शाख पर। खाना पकाने का ख्याल किसे था! बार-बार यही सोचती- भगवान मैंने ऐसा क्या कसूर किया है, जिएसकी सजा दे रहे हो। अगर कोई ग़लती हो गई हो तो मुआफ करो। मैं तो खुद ही पीड़ित हूँ। अब और बर्दाश्त करने की ताक़त मुझमें नहीं है। रामेश्वरी सर पर हाथ रखकर रोने लगी। आसमान पर स्याह बादल घिरे हुए थे। नन्हीं-नन्हीं बूँदें पड़ रही थीं। ऐसा मालूम होता था, जैसे वे बेकस के साथ कोई रोने वाला न देखकर उसका साथ देती हों।
आधी रात्रि गुजर चुकी थी। रामेश्वरी अभी तक दरवाजे पर खड़ी विनोद का रास्ता देख रही थी। इतने में कोई शख्स निहायत तेजी से दौड़ा हुआ आया और दरवाजे पर खड़ा हो गया। उसके जिस्म पर एक स्याह कंबल था, जिसे उसने इस तरह ओढ़ लिया था कि मुँह का बड़ा हिस्सा छुप गया था।
रामेश्वरी ने डरकर पूछा, ''कौन है? ''
वह विनोद था। जल्दी से अंदर दाखिल होकर माँ से दरवाज़ा बंद करने को कहा, फिर आँगन में आकर कंबल को रख दिया और खाने को माँगा।
रामेश्वरी ने भयभीत होकर पूछा, ''तुम आज दिन-भर कहाँ थे? मैं तमाम दिन तुम्हें ढ़ँढ़ती रही।''
विनोद ने क़रीब आकर कहा, ''मैं एक निहायत जरूरी काम से गया था और अभी फिर लौट जाना है। सिर्फ़ तुमसे यह कहने आया हूँ कि अब दो-चार महीने मैं यहाँ न रह सकूँगा। डरने की कोई बात नहीं है। मैंने वही किया है, जो मैं अपना धरम समझता था। जीवन-रक्षा की खातिर मुझे यहाँ से भाग जाना जरूरी है।'
रामेश्वरी की आँखों के सामने अँधेरा छा गया। बोली, ''क्यों बेटा! तुमने वही किया, जिसका मुझे खौफ था। ईश्वर ने तुम्हारी बुद्धि क्यों हर ली?''
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