कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 7 प्रेमचन्द की कहानियाँ 7प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सातवाँ भाग
लेकिन फिर ख्याल आया, उन वेचारों की माँएँ भी तो होंगी जो बेगुनाह फाँसी पाएँगे। -उन्हें भी तो अपने बेटे इतने ही प्यारे होंगे। नहीं, नहीं, वह यह जुल्म नहीं कर सकती। उसे बगैर बेटे के होना मंजूर है, मगर उसके देखते बेगुनाहों का खून न होगा। रामेश्वरी इसी उलझन में पड़ी हुई थी, जब कोई रास्ता न नज़र आता तो वह रोने लग जाती थीं; फिर सोचती- क्यों न खुदकशी कर लूँ कि तमाम दुःखों से नजात मिल जाए, लेकिन उसकी मौत से उन बेगुनाहों की जान तो न बचेगी। उन माताओं का कलेजा तो न ठंडा होगा। वे उस पाप से तो न आज़ाद होंगे।
वह अपने आप ही बोल उठी, ''चाहे कुछ हो, मैं बेगुनाहों का खून न होने दूँगी। इजलास में जाकर साफ़-साफ़ कह दूँगी कि गुनहगार मैं हूँ क्योंकि मेरे बेटे ने यह खून किया है, हम दोनों ही कसूरवार हैं। दोनों को फाँसी दीजिए। मैं अपने धरम से विमुख न हूँगी चाहे मेरी आँखों के सामने ही विनोद की बोटी-बोटी क्यों न कर डाली जाए। हाँ, मैं अपनी आँखों से उसको फाँसी पर चढ़ता देखूँगी, क्योंकि मैंने उसको जन्म दिया है। भगवान, मुझे ताक़त दो कि अपने फर्ज पर डटी रहूँ। मैं कमज़ोर हूँ, पापिन हूँ, हत्यारी हूँ।
रामेश्वरी बेहोश होकर गिर पड़ी।
जब रामेश्वरी को होश आया तो उसका इरादा पक्का हो चुका था, मगर दिली तकलीफ़ हो रही थी। क्या इसीलिए बेटे को जन्म दिया था? इसीलिए पाला-पोसा था कि एक दिन उसे फाँसी पर चढ़ते देखूँगी? विनोद उसकी ज़िंदगी का सहारा था। आज उसी विनोद से उसका नाता टूट रहा है। विनोद की सूरत उसकी आँखों के सामने फिरने लगी। एक दिन वह था कि वह उसे छाती से लगाए फिरती थी। बड़े दुःख झेलकर भी खुश थी। एक दिन यह है कि उसे फाँसी दिलाने जा रही है। विनोद की किताबें और कपड़े कमरे में रखे थे। उसने एक-एक चीज़ को छाती से लगाया। आह! फ़र्ज़ का रास्ता किस कदर दुश्वार गुज़ार है। विनोद को आखिरी बार गले लगाने और उसका आखिरी बोसा लेने के लिए उसका दिल बेचैन हो गया। क्या लड़के को सजा देते हुए माँ मुहब्बत छोड़ देती है?
रामेश्वरी विनोद को सजा देने जा रही थी, जोशे-मुहब्बत से भरी हुई।
एक हफ्ता गुजर गया। पुलिस ने साजिश का पता लगाया। शहर के दस जवान गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हीं में से एक सरकारी गवाह भी बन गया और मजिस्ट्रेट के इजलास में मुक़द्दमा दायर हो गया।
विनोद का उसी दिन से पता न था। रामेश्वरी फ़र्ज़ और मुहब्बत के दरमियान उस किश्ती की मानिंद डावाँडोल हो रही थी, जिसके ऊपर तूफ़ानी आसमान हो और नीचे तूफ़ानी समंदर। कभी फ़र्ज़ कलेजे को मजबूत कर देता, कभी मुहब्बत दिल को कमज़ोर कर देती, लेकिन ज्यों-ज्यों दिन गुज़रते थे, फ़र्ज़ पराजित होता जाता था। नई-नई दलीलें उसके अहसासे-फ़र्ज़ को कमजोर करती जाती थीं। जब तमाम काम ईश्वर की मर्ज़ी से होता है तो उसमें भी उसकी मर्ज़ी होगी। यही सबसे ज़बर्दस्त दलील थी। इन सात दिनों में उसने सिर्फ़ पानी पीकर दिन काटे थे और वह पानी भी आँखों के रास्ते निकल जाता था। ऐसी हो गई थी, जैसे बरसों की मरीज़ हो।
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