लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 7

प्रेमचन्द की कहानियाँ 7

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9768
आईएसबीएन :9781613015056

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

69 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सातवाँ भाग


कानूनी- 'बहुत-सी बुराइयाँ ऐसी हैं, जिन्हें कानून नहीं रोक सकता।'

मिसेज़- '(कहकहा, मारकर) अच्छा, क्या आप भी कानून की अक्षमता स्वीकार करते हैं ? मैं यह नहीं समझती थी। मैं तो कानून को ईश्वर से ज्यादा सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् समझती हूँ।'

कानूनी- 'फ़िर तुमने मजाक शुरू किया।'

मिसेज़- 'अच्छा, लो कान पकड़ती हूँ। अब न हँसूँगी। मैंने उन बुराइयों को रोकने का एक कानून सोचा है। उसका नाम होगा 'दम्पति-सुख-शान्ति बिल'। उसकी दो मुख्य धाराएँ होंगी और कानूनी बारीकियाँ तुम ठीक कर लेना। एक धारा होगी कि पुरुष अपनी आमदनी का आधा बिना कान-पूँछ हिलाये स्त्री को दे दे; अगर न दे, तो पाँच साल कठिन कारावास और पाँच महीने काल-कोठरी। दूसरी धारा होगी, पन्द्रह से पचास तक के पुरुष घर से बाहर न निकलने पावें, अगर कोई निकले, तो दस साल कारावास और दस महीने काल-कोठरी। बोलो मंजूर है ?'

कानूनी- (गम्भीर होकर) 'असम्भव, तुम प्रकृति को पलट देना चाहती हो। कोई पुरुष घर में कैदी बनकर रहना स्वीकार न करेगा।'

मिसेज़- 'वह करेगा और उसका बाप करेगा ! पुलिस डंडे के जोर से करायेगी। न करेगा, तो चक्की पीसनी पड़ेगी। करेगा कैसे नहीं। अपनी स्त्री को घर की मुर्गी समझना और दूसरी स्त्रियों के पीछे दौड़ना, क्या खालाजी का घर है ? तुम अभी इस कानून को अस्वाभाविक समझते हो। मत घबड़ाओ। स्त्रियों का अधिकार होने दो। यह पहला कानून न बन जावे, तो कहना कि कोई कहता था। स्त्री एक-एक पैसे के लिए तरसे और आप गुलछर्रे उड़ायें। दिल्लगी है ! आधी आमदनी स्त्री को दे देनी पड़ेगी, जिसका उससे कोई हिसाब न पूछा, जा सकेगा।'

कानूनी- 'तुम मानव-समाज को मिट्टी का खिलौना समझती हो।'

मिसेज़- 'क़दापि नहीं। मैं यही समझती हूँ कि कानून सबकुछ कर सकता है। मनुष्य का स्वभाव भी बदल सकता है।'

कानूनी- 'क़ानून यह नहीं कर सकता।'

मिसेज़- 'क़र सकता है।'

कानूनी- 'नहीं कर सकता।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book