कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 7 प्रेमचन्द की कहानियाँ 7प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सातवाँ भाग
मुसाफिर के हाथ में एक सुलगता हुआ उपला था। उसने चिलम भरी और दो-चार दम लगा कर बोला- उसके मरने के बाद यह घर गिर गया। गाँव पहले ही उजाड़ था। अब तो और भी सुनसान हो गया। दो-चार आदमी यहाँ आ बैठते थे। अब तो चिड़िया का पूत भी यहाँ नहीं आता। उसके मरने के कई महीने के बाद यही चिड़िया इस पेड़ पर बोलती हुई सुनायी दी। तब से बराबर इसे यहाँ बोलते सुनता हूँ। रात को सभी चिड़ियाँ सो जाती हैं; पर यह रात भर बोलती रहती है। इसका जोड़ा कभी नहीं दिखायी दिया। बस, फुट्टैल है। दिन भर उसी झोपड़े में पड़ी रहती है। रात को इस पेड़ पर आकर बैठती है; मगर इस समय इसके गाने में कुछ और ही बात है, नहीं तो सुनकर रोना आता है। ऐसा जान पड़ता है, मानो कोई कलेजे को मसोस रहा है। मैं तो कभी-कभी पड़े-पड़े रो दिया करता हूँ। सब लोग कहते हैं कि यह वही चंदा है। अब भी कुँवर के वियोग में विलाप कर रही है। मुझे भी ऐसा जान पड़ता है। आज न जाने क्यों मगन है ?
किसान तम्बाकू पी कर सो गया। कुँवर कुछ देर तक खोये हुए-से खड़े रहे। फिर धीरे से बोले- चंदा, क्या सचमुच तुम्हीं हो, मेरे पास क्यों नहीं आती ? एक क्षण में चिड़िया आ कर उनके हाथ पर बैठ गयी। चंद्रमा के प्रकाश में कुँवर ने चिड़िया को देखा। ऐसा जान पड़ा; मानो उनकी आँखें खुल गयी हों, मानो आँखों के सामने से कोई आवरण हट गया हो। पक्षी के रूप में भी चंदा की मुखाकृति अंकित थी।
दूसरे दिन किसान सो कर उठा तो कुँवर की लाश पड़ी हुई थी। कुँवर अब नहीं हैं, किन्तु उनके झोपड़े की दीवारें बन गयी हैं, ऊपर फूस का नया छप्पर पड़ गया है, और झोपड़े के द्वार पर फूलों की कई क्यारियाँ लगी हैं। गाँव के किसान इससे अधिक और क्या कर सकते थे ? उस झोपड़े में अब पक्षियों के एक जोड़े ने अपना घोंसला बनाया है। दोनों साथ-साथ दाने-चारे की खोज में जाते हैं, साथ-साथ आते हैं, रात को दोनों उसी वृक्ष की डाल पर बैठे दिखाई देते हैं। उनका सुरम्य संगीत रात की नीरवता में दूर तक सुनायी देता है। वन के जीव-जन्तु वह स्वर्गीय गान सुन कर मुग्ध हो जाते हैं। यह पक्षियों का जोड़ा कुँवर और चंदा का जोड़ा है, इसमें किसी को सन्देह नहीं है। एक बार एक व्याध ने इन पक्षियों को फँसाना चाहा; पर गाँव वालों ने उसे मार कर भगा दिया।
7. कायर
युवक का नाम केशव था, युवती का प्रेमा। दोनों एक ही कालेज के और एक ही क्लास के विद्यार्थी थे। केशव नये विचारों का युवक था, जात-पाँत के बन्धनों का विरोधी। प्रेमा पुराने संस्कारों की कायल थी, पुरानी मर्यादाओं और प्रथाओं में पूरा विश्वास रखनेवाली; लेकिन फिर भी दोनों में गाढ़ा प्रेम हो गया था। और यह बात सारे कालेज में मशहूर थी। केशव ब्राह्मण होकर भी वैश्य कन्या प्रेमा से विवाह करके अपना जीवन सार्थक करना चाहता था। उसे अपने माता-पिता की परवाह न थी। कुल-मर्यादा का विचार भी उसे स्वांग-सा लगता था। उसके लिए सत्य कोई वस्तु थी, तो प्रेम थी; किन्तु प्रेमा के लिए माता-पिता और कुल-परिवार के आदेश के विरुद्ध एक कदम बढ़ाना भी असम्भव था।
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