कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 8 प्रेमचन्द की कहानियाँ 8प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का आठवाँ भाग
नौ बजते-बजते विरजन घर में आयी। सेवती ने कहा- आज बड़ी देर लगायी।
विरजन- कुन्ती ने सूर्य को बुलाने के लिए कितनी तपस्या की थी।
सीता- बाला जी बड़े निष्ठुर हैं। मैं तो ऐसे मनुष्य से कभी न बोलूं।
रुकमिणी- जिसने संन्यास ले लिया, उसे घर–बार से क्या नाता?
चन्द्रकुँवरि- यहां आयेगें तो मैं मुख पर कह दूंगी कि महाशय, यह नखरे कहां सीखे ?
रुकमणी- महारानी। ऋषि-महात्माओं का तो शिष्टाचार किया करो जिह्वा क्या है कतरनी है।
चन्द्रकुँवरि- और क्या, कब तक सन्तोष करें जी। सब जगह जाते हैं, यहीं आते पैर थकते हैं।
विरजन- (मुस्कराकर) अब बहुत शीघ्र दर्शन पाओगे। मुझे विश्वास है कि इस मास में वे अवश्य आयेंगे।
सीता- धन्य भाग्य कि दर्शन मिलेगें। मैं तो जब उनका वृतांत पढती हूं यही जी चाहता हैं कि पाऊं तो चरण पकडकर घण्टों रोऊँ।
रुकमणी- ईश्वर ने उनके हाथों में बड़ा यश दिया। दारानगर की रानी साहिबा मर चुकी थी सांस टूट रही थी कि बालाजी को सूचना हुई। झट आ पहुंचे और क्षण-मात्र में उठाकर बैठा दिया। हमारे मुंशीजी (पति) उन दिनों वहीं थे। कहते थे कि रानीजी ने कोश की कुंजी बालाजी के चरणों पर रख दी और कहा- ‘आप इसके स्वामी हैं’। बालाजी ने कहा- ‘मुझे धन की आवश्यकता नहीं अपने राज्य में तीन सौ गौशलाएं खुलवा दीजियें’। मुख से निकलने की देर थी। आज दारानगर में दूध की नदी बहती हैं। ऐसा महात्मा कौन होगा।
चन्द्रकुवंरि- राजा नवलखा का तपेदिक उन्हीं की बूटियों से छूटा। सारे वैद्य डाक्टर जवाब दे चुके थे। जब बालाजी चलने लगे, तो महारानी जी ने नौ लाख का मोतियों का हार उनके चरणों पर रख दिया। बालाजी ने उसकी ओर देखा तक नहीं।
रानी- कैसे रुखे मनुष्य हैं।
रुकमणी- हाँ, और क्या, उन्हें उचित था कि हार ले लेते- नहीं-नहीं कण्ठ में डाल लेते।
विरजन- नहीं, लेकर रानी को पहिना देते। क्यों सखी?
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