कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 8 प्रेमचन्द की कहानियाँ 8प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का आठवाँ भाग
पाँसा पलट चुका था, आइवन ने गर्म होकर कहा, अत्याचारियों को संसार में फलने-फूलने दिया जाय, जिससे एक दिन इनके काँटों के मारे पृथ्वी पर कहीं पाँव रखने की जगह न रहे। हेलेन ने कोई जवाब न दिया; पर उसके मन में जो अवसाद उत्पन्न हो गया था, वह उसके मुख पर झलक रहा था। राष्ट्र उसकी दृष्टि में सर्वोपरि था, उसके सामने व्यक्ति का कोई मूल्य न था। अगर इस समय उसका मन किसी कारण से दुर्बल भी हो रहा था, तो उसे खोल देने का उसमें साहस न था।
दोनों गले मिलकर विदा हुए। कौन जाने, यह अन्तिम दर्शन हो ? दोनों के दिल भारी थे और आँखें सजल।
आइवन ने उत्साह के साथ कहा, 'मैं ठीक समय पर आऊँगा।'
हेलेन ने कोई जवाब न दिया। आइवन ने फिर सानुरोध कहा, 'ख़ुदा से मेरे लिए दुआ करना, हेलेन !'
हेलेन ने जैसे रोते हुए गले से कहा, 'मुझे खुदा पर भरोसा नहीं है।'
'मुझे तो है !'
'कब से ?'
'जब से मौत मेरी आँखों के सामने खड़ी हो गयी।'
वह वेग के साथ चला गया। सन्ध्या हो गयी थी और दो घंटे के बाद ही उस कठिन परीक्षा का समय आ जायगा, जिससे उसके प्राण काँप रहे थे। वह कहीं एकान्त में बैठकर सोचना चाहता था। आज उसे ज्ञात हो रहा था कि वह स्वाधीन नहीं है। बड़ी मोटी जंजीर उसके एक-एक अंग को जकड़े हुए थी। इन्हें वह कैसे तोड़े ? दस बज गये थे। हेलेन और रोमनाफ पार्क के एक कुंज में बेंच पर बैठे हुए थे। तेज बर्फीली हवा चल रही थी। चाँद किसी क्षीण आशा की भाँति बादलों में छिपा हुआ था। हेलेन ने इधर-उधर सशंक नेत्रों से देखकर कहा, 'अब तो देर हो गयी, यहाँ से चलना चाहिए।'
रोमनाफ ने बेंच पर पाँव फैलाते हुए कहा, 'अभी तो ऐसी देर नहीं हुई है, हेलेन ! कह नहीं सकता, जीवन के यह क्षण स्वप्न हैं या सत्य; लेकिन सत्य भी हैं तो स्वप्न से अधिक मधुर और स्वप्न भी हैं तो सत्य से अधिक उज्ज्वल।'
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