कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 9 प्रेमचन्द की कहानियाँ 9प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का नौवाँ भाग
'होगा।'
'स्त्री का पहला धर्म यह है कि वह रसोई के काम में चतुर हो।'
फिर उपदेशों का तार बँधा; यहाँ तक कि रामेश्वरी ऊब कर चली गई !
पाँच-छ: महीने गुजर गये। एक दिन कुन्दनलाल के एक दूर के संबंधी उनसे मिलने आये। रामेश्वरी को ज्यों ही उनकी खबर मिली, जलपान के लिए मिठाई भेजी; और महरी से कहला भेजा आज यहीं भोजन कीजिएगा। वह महाशय फूले न समाये। बोरिया-बँधना लेकर पहुँच गये और डेरा डाल दिया। एक हफ्ता गुजर गया; आप टलने का नाम भी नहीं लेते। आवभगत में कोई कमी होती, तो शायद उन्हें कुछ चिन्ता होती; पर रामेश्वरी उनके सेवा-सत्कार में जी-जान से लगी हुई थी। फिर वह भला क्यों हटने लगे। एक दिन कुन्दनलाल ने कहा, 'तुमने यह बुरा रोग पाला।'
रामेश्वरी ने चौंककर पूछा, 'क़ैसा रोग?'
'इन्हें टहला क्यों नहीं देतीं?'
'मेरा क्या बिगाड़ रहे हैं?'
'कम-से-कम 10 की रोज चपत दे रहे हैं। और अगर यही खातिरदारी रही, तो शायद जीते-जी टलेंगे भी नहीं।'
'मुझसे तो यह नहीं हो सकता कि कोई दो-चार दिन के लिए आ जाय, तो उसके सिर हो जाऊँ। जब तक उनकी इच्छा हो रहें।'
'ऐसे मुफ्तखोरों का सत्कार करना पाप है। अगर तुमने इतना सिर न चढ़ाया होता, तो अब तक लंबा हुआ होता। जब दिन में तीन बार भोजन और पचासों बार पान मिलता है, तो उसे कुत्ते ने काटा है, जो अपने घर जाय।'
'रोटी का चोर बनना तो अच्छा नहीं !'
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