कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 9 प्रेमचन्द की कहानियाँ 9प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का नौवाँ भाग
रामे.- 'अगर उस वक्त सरकार पूछते, क्यों दूसरी महरी बुलाई, तो क्या जवाब देती? अपनी अक्ल से काम लेना छोड़ दिया। अब तुम्हारी ही अक्ल से काम लूँगी। मैं यह नहीं चाहती कि कोई मुझे आँखें दिखाये।'
कुन्दन.- 'अच्छा, तो इस वक्त क्या होगा?'
रामे.- 'ज़ो हुजूर का हुक्म हो।'
कुन्दन.- 'तुम मुझे बनाती हो।'
रामे.- 'मेरी इतनी मजाल कि आप को बनाऊँ ! मैं तो हुजूर की लौंडी हूँ। जो कहिए, वह करूँ।'
कुन्दन.- 'मैं तो जाता हूँ, तुम्हारा जो जी चाहे करो।'
रामे.- 'ज़ाइए, मेरा जी कुछ न चाहेगा और न कुछ करूँगी।'
कुन्दन.- 'आखिर तुम क्या खाओगी?'
रामे.- 'ज़ो आप देंगे, वही खा लूँगी।'
कुन्दन.- 'लाओ, बाजार से पूड़ियाँ ला दूँ।'
रामेश्वरी रुपया निकाल लाई। कुन्दनलाल पूड़ियाँ लाये। इस वक्त का काम चला। दफ्तर गये। लौटे, तो देर हो गयी थी। आते-ही-आते पूछा, 'महरी आयी?'
रामे.- 'नहीं।'
कुन्दन.- 'मैंने तो कहा, था, पड़ोसवाली को बुला लेना।'
रामे.- 'बुलाया था। वह पाँच रुपये माँगती है।'
कुन्दन.- 'तो एक ही रुपये का फर्क था, क्यों नहीं रख लिया? '
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