कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 9 प्रेमचन्द की कहानियाँ 9प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का नौवाँ भाग
कुन्दन.- 'तो मैं घर के मामले में कुछ न बोलूँ? '
रामे.- 'आप न बोलेंगे, तो कौन बोलेगा? मैं तो केवल हुक्म की ताबेदार हूँ।'
रात रोटी-दाल पर कटी। दोनों आदमी लेटे। रामेश्वरी को तो तुरन्त नींद आ गयी। कुन्दनलाल बड़ी देर तक करवटें बदलते रहे। अगर रामेश्वरी इस तरह सहयोग न करेगी, तो एक दिन भी काम न चलेगा। आज ही बड़ी मुश्किल से भोजन मिला। इसकी समझ ही उलटी है। मैं तो समझाता हूँ, यह समझती है, डाँट रहा हूँ। मुझसे बिना बोले रहा भी तो नहीं जाता। लेकिन अगर बोलने का यह नतीजा है, तो फिर बोलना फिजूल है। नुकसान होगा, बला से; यह तो न होगा कि दफ्तर से आकर बाजार भागूँ। महरी से रुपये वसूल करने की बात इसे बुरी लगी और थी भी बेजा। रुपये तो न मिले, उलटे महरी ने काम छोड़ दिया।
रामेश्वरी को जगाकर बोले 'क़ितना सोती हो तुम?'
रामे.- ' मजूरों को अच्छी नींद आती है।'
कुन्दन.- 'चिढ़ाओ मत, महरी से रुपये न वसूल करना।'
रामे.- 'वह तो लिये खड़ी है शायद।'
कुन्दन.- 'उसे मालूम हो जायगा, तो काम करने आयेगी।'
रामे.- 'अच्छी बात है कहला भेजूँगी।'
कुन्दन.- 'आज से मैं कान पकड़ता हूँ, तुम्हारे बीच में न बोलूँगा।'
रामे.- 'और जो मैं घर लुटा दूँ तो?'
कुन्दन.- 'लुटा दो, चाहे मिटा दो, मगर रूठो मत। अगर तुम किसी बात में मेरी सलाह पूछोगी, तो दे दूँगा; वरना मुँह न खोलूँगा।'
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