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प्रेमचन्द की कहानियाँ 10

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9771
आईएसबीएन :9781613015087

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दसवाँ भाग


आह! इस खामोशी के यह मायने हैं, इसलिए जबान पर मोहर लगी हुई है। खैर, अब मुझे क्या करना चाहिए? सरला सोचने लगी- ''बेशक, यह खत धीरेन को इस इल्जाम से बरी कर देगा जो उन पर आरोपित है। किसी प्रयत्न की जरूरत नहीं। मैं इसे मजिस्ट्रेट के सामने रख दूँगी। ज़रा-सी तहक़ीकात में सारे वाकियात खुल पड़ेंगे और धीरेन फ़ौरन रिहा हो जाएँगे, लेकिन उसके बाद फिर कैसे निभेगी? क्या उसके बाद भी हम एक-दूसरे को मुहब्बत कर सकेंगे?''

उसे फिर ख्याल आया, क्या यह मुमकिन है कि मैं इस राज को इस तरह प्रकट कर दूँ जिनको छिपा रखने के लिए धीरेन यह सब कुछ झेलने को तैयार थे, लेकिन क्या यह मुमकिन है कि मैं खामोशी अख्तियार कर लूँ और उन्हें इस इल्जाम का खामियाजा उठाने दूँ जिससे वह बिलकुल पाक हैं, उन्हें बचाना मेरा फ़र्ज़ है।

आखिर उसके दिल ने फ़ैसला कर लिया। वह खिड़की की तरफ़ गई, बाहर झाँककर देखा। फिर अपने कमरे में आकर एक चादर ओढ़कर बाहर निकल पड़ी। नौकर-चाकर सब सो गए थे। गलियों में सन्नाटा छाया हुआ था। किसी ने उसे बाहर जाते नहीं देखा।

सरला क़दम बढ़ाते हुए थोड़ी देर में एक खुबसूरत मकान के सामने आकर रुकी। कमरे में लैम्प जल रहा था और एक औरत मेज पर बैठी हुई कुछ लिखती दिखाई देती थी। सरला को देखते ही उस औरत ने घबराकर पूछा- ''सरला! तुम यहाँ? इतनी रात गए! क्या मामला है? क्या धीरेन बीमार तो नहीं हैं?''

सरला ने मेज के सामने आकर कहा- ''क्या तुमने नहीं सुना कि धीरेन पर बम्ब-दुर्घटना में शरीक होने का जुर्म आयद हुआ है। मुखबिर का बयान है कि जिस वक्त क़ातिल के हाथ में बम्ब दिया गया था, उस वक्त धीरेन वहाँ मौजूद थे। यह मंगल के चार बजे दिन का वाक़िया है। धीरेन का बयान है कि मुझे इन दुर्घटनाओं का तनिक भी इल्म नहीं और न उस वक्त मैं वहाँ था, लेकिन यह नहीं बताते कि उस वक्त थे कहाँ। मैं तुमसे पूछती हूँ मंगल के चार बजे शाम को वह कहाँ थे?''

वह औरत चौंककर उठ खड़ी हुई- ''मंगल के चार बजे! उस दिन तो वह...।'' कुछ कहते-कहते रुक गई और बहुत मद्धिम लहजे में बोली- ''क्यों, वह कुछ बताते नहीं क्या? सिवाय कचहरी के और कहाँ होंगे?''

सरला ने जवाब दिया- ''नहीं, उस दिन वह अदालत में नहीं थे।'' मगर जप्त हाथ से जाता रहा, उबल पड़ी- ''और इस मामले में वह इसलिए खामोश हैं कि शायद स्थिति का प्रकटीकरण किसी की प्रतिष्ठा पर धब्बा न लगा दे। अब मेरे सामने ऐसी भोली न वनो। मैं सब जान गई हूँ। हाँ, मुझे सब-कुछ मालूम हो गया है। यह देखो!'' यह कहकर उसने वही खत मेज पर फेंक दिया।

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