कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 11 प्रेमचन्द की कहानियाँ 11प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग
छः महीने बीत गए। सहसा एक दिन उसे मालूम हुआ, मेरी नई माता आने वाली है। दौड़ा पिता के पास गया और पूछा- क्या मेरी नई माता आयँगी?
पिता ने कहा- हाँ, बेटा, वह आकर तुम्हें प्यार करेंगी।
सत्यप्रकाश- क्या मेरी माँ स्वर्ग से आ जाएँगी?
देवप्रकाश- हाँ, वही आ जायँगी?
सत्यप्रकाश- मुझे उसी तरह प्यार करेंगी ?
देवप्रकाश इसका क्या उत्तर देते? मगर सत्यप्रकाश उस दिन से प्रसन्न-मन रहने लगा। अम्माँ आयँगी ! मुझे गोद में लेकर प्यार करेंगी ! अब मैं उन्हें कभी दिक न करूँगा, कभी जिद न करूँगा, अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाया करूँगा।
विवाह के दिन आये। घर में तैयारियाँ होने लगीं। सत्यप्रकाश खुशी से फूला न समाता ! मेरी नई अम्माँ आएँगी। बारात में वह भी गया। नए-नए कपड़े मिले। वह पालकी पर बैठा। नानी ने अन्दर बुलाया, और उसे गोद में लेकर एक अशरफी दी। वहीं उसे नई माता के दर्शन हुए। नानी के दर्शन हुए। नानी ने नई माता से कहा–बेटी, कैसा सुन्दर बालक है ! इसे प्यार करना।
सत्यप्रकाश ने नई माता को देखा, वह मुग्ध हो गया। बच्चे भी रूप के उपासक होते हैं। एक लावण्मयी मूर्ति आभूषणों से लदी सामने खड़ी थी। उसने दोनों हाथों से उसका आँचल पकड़कर कहा- अम्माँ !
कितना अरुचिकर शब्द था, कितना लज्जायुक्त, कितना अप्रिय ! वह ललना, जो ‘देवप्रिया' नाम से सम्बोधित होती थी, उत्तरदायित्व, त्याग और क्षमा का सम्बोधन न सह सकी। अभी वह प्रेम-विलास का सुख-स्वप्न देख रही थी - यौवन-काल की मदमय वायु-तरंगों में आन्दोलित हो रही थी। इस शब्द ने उसके स्वप्न को भंग कर दिया। कुछ रुष्ट होकर बोली- मुझे अम्माँ मत कहो।
सत्यप्रकाश ने विस्मृत नेत्रों से देखा उसका बाल-स्वप्न भंग हो गया। आँखें डबडबा गईं।
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