कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 11 प्रेमचन्द की कहानियाँ 11प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग
ज्ञानप्रकाश- मैं जाकर अम्माँ से कहे देता हूँ।
सत्यप्रकाश- तो फिर मैं तुमसे भी छिपकर चला जाऊँगा।
ज्ञानप्रकाश- क्यों चले जाओगे? तुम्हें मेरी जरा भी मुहब्बत नहीं?
सत्यप्रकाश ने भाई को गले लगाकर कहा- तुम्हें छोड़कर जाने को जी तो नहीं चाहता, लेकिन जहाँ कोई पूछनेवाला नहीं, वहाँ पड़े रहना बेहयाई है। कहीं दस-पाँच की नौकरी कर लूंगा और पेट पालता रहूँगा, और किस लायक हूँ?
ज्ञानप्रकाश- तुमसे अम्माँ क्यों इतनी चिढ़ती हैं? मुझे तुमसे मिलने को मना किया करती हैं।
सत्यप्रकाश- मेरे नसीब खोटे हैं; और क्या !
ज्ञानप्रकाश- तुम लिखने पढ़ने में जी नहीं लगाते !
सत्यप्रकाश- लगता ही नहीं, कैसे लगाऊँ ! जब कोई परवा नहीं करता तो मैं भी सोचता हूँ-ऊँह, यही न होगा, ठोकर खाऊँगा। बला से !
ज्ञानप्रकाश- मुझे भूल तो न जाओगे? मैं तुम्हारे पास खत लिखा करूँगा। मुझे भी एक बार अपने यहाँ बुलाना।
सत्यप्रकाश- तुम्हारे स्कूल के पते से चिट्टी लिखूँगा।
ज्ञानप्रकाश- (रोते-रोते) मुझे न-जाने क्यों तुम्हारी बड़ी मुहब्बत लगती है।
सत्यप्रकाश- मैं तुम्हें सदैव याद रखूँगा !
यह कहकर उसने फिर भाई को गले लगाया, और घर से निकल पड़ा। पास एक कौड़ी भी न थी, और वह कलकत्ते जा रहा था।
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