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प्रेमचन्द की कहानियाँ 11

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9772
आईएसबीएन :9781613015094

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग


दूसरे दिन सत्यप्रकाश ने 500 रु पिता के पास भेजे, और पत्र का उत्तर लिखा कि मेरा अहोभाग्य, जो आपने मुझे याद किया। ज्ञानू का विवाह निश्चित हो गया, इसकी बधाई ! इन रुपयों से नववधू के लिए कोई आभूषण बनवा दीजिएगा। रही मेरे विवाह की बात, सो मैंने अपनी आँखों से जो कुछ देखा, और मेरे सिर पर जो कुछ बीती है, उस पर ध्यान देते हुए यदि मैं कुटुम्ब-पाश में फँसू, तो मुझसे बड़ा उल्लू संसार में न होगा। आशा है, आप मुझे क्षमा करेंगे। विवाह की चर्चा ही से मेरे हृदय को आघात पहुँचता है।

दूसरा पत्र ज्ञानप्रकाश को लिखा कि माता-पिता की आज्ञा शिरोधार्य करो। मैं अपढ़, मूर्ख, बुद्धिहीन आदमी हूँ; मुझे विवाह करने का कोई अधिकार नहीं। मैं तुम्हारे विवाह के शुभोत्सव में सम्मिलित न हो सकूँगा, लेकिन मेरे लिए इससे बढ़कर आनंद और संतोष का विषय नहीं हो सकता।

देवप्रकाश यह पढ़कर अवाक रह गए। फिर आग्रह करने का साहस न हुआ। देवप्रिया ने नाक सिकोड़कर कहा- यह लड़का देखने को ही सीधा है, है जहर का बुझाया हुआ ! सौ कोस पर बैठा हुआ बरछियों से कैसा छेद रहा है।

किंतु ज्ञानप्रकाश ने यह पत्र पढा, तो उसे मर्माघात पहुँचा। दादा और अम्माँ के अन्याय ने ही उन्हें यह भीषण व्रत धारण करने पर बाध्य किया है। इन्हीं ने उन्हें निर्वासित किया है, और शायद सदा के लिए। न जाने अम्माँ को उनसे क्यों इतनी जलन हुई। मुझे तो अब याद आता है कि किशोरावस्था ही से वह बड़े आज्ञाकारी, विनयशील और गम्भीर थे। उन्हें अम्माँ की बातों का जवाब देते नहीं सुना। मैं अच्छे से अच्छा खाता था, फिर भी उनके तेवर मैले न हुए; हालाँकि उन्हें जलना चाहिए था। ऐसी दशा में अगर उन्हें गार्हस्थ्य जीवन से घृणा हो गई, तो आश्चर्य ही क्या? मैं ही क्यों इस विपत्ति में फँसूँ? कौन जाने, मुझे भी ऐसी ही परिस्थिति का सामना करना पड़े। भैया ने बहुत सोच-समझकर यह धारणा की है !

संध्या समय जब उसके माता-पिता बैठे हुए समस्या पर विचार कर रहे थे, ज्ञानप्रकाश ने आकर कहा- मैं कल भैया से मिलने जाऊँगा।

देवप्रिया- क्या कलकत्ते जाओगे?

ज्ञानप्रकाश- जी, हाँ।

देवप्रिया- उन्हीं को क्यों नहीं बुलाते?

ज्ञानप्रकाश- उन्हें कौन मुँह लेकर बुलाऊँ ! आप लोगों ने तो पहले ही मेरे मुँह में कालिख लगा दी है। ऐसा देव-पुरुष आप लोगों के कारण विदेश में ठोकर खा रहा है, और मैं इतना निर्लज्ज हो जाऊँ कि...।

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