कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 11 प्रेमचन्द की कहानियाँ 11प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग
बेटा- 'तो वह तुम्हारे घर में रह चुकी।'
माँ- 'क्या संसार में औरतों की कमी है?
बेटा- 'औरतों की कमी तो नहीं; मगर देवियों की कमी जरूर है !'
माँ- 'और ऐसी औरत। सोने लगती है, तो बच्चा चाहे रोते-रोते बेदम हो जाय, मिनकती तक नहीं। फूल-सा बच्चा लेकर मैके गयी थी, तीन महीने में लौटी, तो बच्चा आधा भी नहीं है।'
बेटा- 'तो क्या मैं यह मान लूँ कि तुम्हें उसके लड़के से जितना प्रेम है, उतना उससे नहीं है? यह तो प्रकृति के नियम के विरुद्ध है। और मान लो,वह निरमोहिन ही है, तो यह उसका दोष है। तुम क्यों उसकी जिम्मेदारी अपने सिर लेती हो? उसे पूरी स्वतन्त्रता है, जैसे चाहे अपने बच्चे को पाले, अगर वह तुमसे कोई सलाह पूछे, प्रसन्न-मुख से दे दो, न पूछे तो समझ लो, उसे तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं है। सभी माताएँ अपने बच्चे को प्यार करती हैं और वह अपवाद नहीं हो सकती।'
माँ- 'तो मैं सबकुछ देखूँ, मुँह न खोलूँ? घर में आग लगते देखूँ और चुपचाप मुँह में कालिख लगाये खड़ी रहूँ?'
बेटा- 'तुम इस घर को जल्द छोड़नेवाली हो, उसे बहुत दिन रहना है। घर की हानि-लाभ की जितनी चिन्ता उसे हो सकती है, तुम्हें नहीं हो सकती। फिर मैं कर ही क्या सकता हूँ? ज्यादा-से-ज्यादा उसे डाँट बता सकता हूँ; लेकिन वह डाँट की परवाह न करे और तुर्की-बतुर्की जवाब दे, तो मेरे पास ऐसा कौन-सा साधन है, जिससे मैं उसे ताड़ना दे सकूँ?'
माँ- 'तुम दो दिन न बोलो, तो देवता सीधे हो जायँ, सामने नाक रगड़े।'
बेटा- 'मुझे इसका विश्वास नहीं है। मैं उससे न बोलूँगा, वह भी मुझसे न बोलेगी। ज्यादा पीछे पङूँगा, तो अपने घर चली जायगी।
माँ- 'ईश्वर यह दिन लाये। मैं तुम्हारे लिए नयी बहू लाऊँ।'
बेटा- 'सम्भव है, इसकी भी चची हो।'
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