कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 11 प्रेमचन्द की कहानियाँ 11प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग
उस घर में कदम रखते ही हरिधन को ऐसी शान्त महिमा का अनुभव हुआ मानो वह अपनी माँ की गोद में बैठा हुआ है। इतने दिनों ठोकरें खाने से उसका हृदय कोमल हो गया था। जहाँ पहले अभिमान था, आग्रह था, हेकड़ी थी, वहाँ अब निराशा थी, पराजय और याचना थी। बीमारी का जोर कम हो चला था, अब उस पर मामूली दवा भी असर कर सकती थी; किले की दीवारें छिद चुकी थीं। अब उसमें घुस जाना असाध्य न था। वही घर जिससे वह एक दिन विरक्त हो गया था, अब गोद फैलाये उसे आश्रय देने को तैयार था। हरिधन का निरावलम्ब मन यह आश्रय पाकर मानों तृप्त हो गया।
शाम को विमाता ने कहा– बेटा, तुम घर आ गये, हमारे धन भाग। अब इन बच्चों को पालो, माँ का नाता न सही, बाप का नाता तो है ही। मुझे एक रोटी दे देना, खा कर एक कोने में पड़ी रहूँगी। तुम्हारी अम्माँ से मेरा बहन का नाता है। उस नाते से तुम लड़के होते हो।
हरिधन ने मातृ विह्वल आँखों से विमाता के रूप में अपनी माता के दर्शन किये। घर के एक-एक कोने में मातृ-स्मृतियों की छटा चाँदनी की भाँति छिटकी हुई थी, विमाता का प्रौढ़ मुखमंडल भी उसी छटा से रंजित था।
दूसरे दिन हरिधन फिर कन्धे पर हल रख कर खेत को चला। उसके मुख पर उल्लास था और आँखों में गर्व। वह अब किसी का आश्रित नहीं, आश्रयदाता था; किसी के द्वार का भिक्षुक नहीं, घर का रक्षक था।
एक दिन उसने सुना, गुमानी ने दूसरा घर कर लिया। माँ से बोला– तुमने सुना काकी! गुमानी ने घर कर लिया।
काकी ने कहा– घर क्या कर लेगी, ठट्ठा है! बिरादरी में ऐसी अन्धेर? पंचायत नहीं, अदालत तो है?
हरिधन ने कहा– नहीं काकी, बहुत अच्छा हुआ। ला, महावीर जी को लड्डू चढ़ा आऊँ। मैं तो डर रहा था, कहीं मेरे गले न आ पड़े। भगवान् ने मेरी सुन ली। मैं वहाँ से यही ठान कर चला था, अब उसका मुँह न देखूँगा।
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