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प्रेमचन्द की कहानियाँ 12

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9773
आईएसबीएन :9781613015100

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बारहवाँ भाग


लालाजी के हौसले बढ़े। उन्होंने कांग्रेस से लड़ने की ठान ली! उसी के फलस्वरूप तीन महीने से उनकी दूकान पर प्रातःकाल से नौ बजे रात तक पहरा रहता था। पुलिस दलों ने उनकी दूकान पर वालंटियरों को कई बार गालियाँ दीं, कई बार पीटा, खुद सेठजी ने भी कई बार उन पर वाणी के बाण चलाए; किन्तु पहरेवाले वाले किसी तरह न टलते थे। बल्कि इन अत्याचारों के कारण चंदूमल का बाजार और भी गिरता जा रहा था। मुफिस्सल की दूकानों के मुनीम लोग और भी दुराशा-जनक समाचार भेजते रहते थे। कठिन समस्या थी। इस संकट से निकलने का कोई उपाय न था। वह देखते थे, जिन लोगों ने प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए हैं, वे चोरी-छिपे कुछ-न-कुछ विदेशी माल बेच लेते हैं। उनकी दूकानों पर पहरा नहीं बैठता। यह सारी विपत्ति मेरे ही सिर है!

उन्होंने सोचा, पुलिस हाकिमों की दोस्ती से मेरा भला क्या हुआ? उनके हटाये ये पहरे नहीं हटते। सिपाहियों की प्रेरणा से ग्राहक नहीं आते। किसी तरह पहरे बन्द हो जाते, तो सारा खेल बन जाता।

इतने में मुनीमजी ने कहा- लालाजी, यह देखिए, कई व्यापारी हमारी तरफ आ रहे थे। पहरेवालों ने उन्हें न-जाने क्या मंत्र पढ़ा दिया, सब चले जा रहे हैं।

चंदूमल- अगर इन पापियों को कोई गोली मार देता, तो मैं बहुत खुश होता।
ये सब मेरा सर्वनाश करके दम लेंगे।

मुनीम- कुछ हेठी तो होगी; यदि आप प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर कर देते, तो यह पहरा उठ जाता। तब हम भी सब माल किसी-न-किसी तरह खपा देते।

चंदूमल- मन में तो मेरे भी यह बात आती है, पर सोचो, अपमान कितना होगा? इतनी हेकड़ी दिखाने के बाद फिर झुका नहीं जाता। फिर हाकिमों की निगाहों में गिर जाऊँगा। और लोग भी ताने देंगे कि चले थे बच्चा कांग्रेस से लड़ने। ऐसी मुँह की खायी कि होश ठिकाने आ गए। जिन लोगों को पीटा और पिटवाया, जिनको गालियाँ दीं, जिनकी हँसी उड़ायी, अब उनकी शरण कौन मुँह लेकर जाऊँ! मगर एक उपाय सूझ रहा है! अगर चकमा चल गया, तो’पौ बारह’ है। बात तो तब है जब साँप को मारूँ, मगर लाठी बचाकर। पहरा उठा दूँ, पर बिना किसी की खुशामद किए।

नौ बज गए थे। सेठ चंदूमल गंगा-स्नान करके लौट आए थे, और मसनद पर बैठकर चिट्ठियाँ पढ़ रहे थे। अन्य दूकान के मुनीमों ने अपनी विपत्ति-कथा सुनाई थी! एक-एक पत्र पढ़कर सेठजी का क्रोध बढ़ता जाता था। इतने में दो वालंटियर झंडियाँ लिये उनकी दूकान के सामने आकर खड़े हो गए।

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