कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 12 प्रेमचन्द की कहानियाँ 12प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बारहवाँ भाग
सन्ध्या का समय था। प्रकाश ने अपने शिष्य वीरेन्द्र को पढ़ाकर छड़ी उठायी, तो ठकुराइन ने आकर कहा, अभी न जाओ बेटा, जरा मेरे साथ आओ, तुमसे कुछ सलाह करनी है।
प्रकाश ने मन में सोचा आज कैसी सलाह है, वीरेन्द्र के सामने क्यों नहीं कहा? उसे भीतर ले जाकर रमा देवी ने कहा- तुम्हारी क्या सलाह है, बीरू को ब्याह दूं? एक बहुत अच्छे घर से सन्देशा आया है।
प्रकाश ने मुस्कराकर कहा- यह तो बीरू बाबू ही से पूछिए।
'नहीं, मैं तुमसे पूछती हूँ।'
प्रकाश ने असमंजस में पड़कर कहा- मैं इस विषय में क्या सलाह दे सकता हूँ? उनका बीसवाँ साल तो है; लेकिन यह समझ लीजिए कि पढ़ना हो चुका।
'तो अभी न करूँ, यही सलाह है?'
'जैसा आप उचित समझें। मैंने तो दोनों बातें कह दीं।'
'तो कर डालूँ? मुझे यही डर लगता है कि लड़का कहीं बहक न जाय।'
'मेरे रहते इसकी तो आप चिन्ता न करें। हाँ, इच्छा हो, तो कर डालिए। कोई हरज भी नहीं है।'
'सब तैयारियाँ तुम्हीं को करनी पड़ेंगी, यह समझ लो।'
'तो मैं इनकार कब करता हूँ।'
रोटी की खैर मनानेनवाले शिक्षित युवकों में एक प्रकार की दुविधा होती है, जो उन्हें अप्रिय सत्य कहने से रोकती है। प्रकाश में भी यही कमजोरी थी।
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