कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 12 प्रेमचन्द की कहानियाँ 12प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बारहवाँ भाग
चम्पा मुस्कराकर बोली- चलो, ऐसी मन की मिठाई मैं नहीं खाती। निबाह होता जाय, यही बहुत है। गहनों की साध नहीं है।
प्रकाश ने चम्पा की बातें सुनकर लज्जा और दु:ख से सिर झुका लिया। चम्पा उसे इतना पुरुषार्थहीन समझती है।
रात को दोनों भोजन करके लेटे, तो प्रकाश ने फिर गहनों की बात छेड़ी। गहने उसकी आँखों में बसे हुए थे- इस शहर में ऐसे बढ़िया गहने बनते हैं, मुझे इसकी आशा न थी।
चम्पा ने कहा- क़ोई और बात करो। गहनों की बात सुनकर जी जलता है।
'वैसी चीजें तुम पहनो, तो रानी मालूम होने लगो।'
'गहनों से क्या सुन्दरता बढ़ जाती है? तो ऐसी बहुत-सी औरतें देखी हैं, जो गहने पहनकर भद्दी दीखने लगती हैं।'
'ठाकुर साहब भी मतलब के यार हैं। यह न हुआ कि कहते, इसमें से कोई चीज चम्पा के लिए भी लेते जाओ।'
'तुम भी कैसी बच्चों की-सी बातें करते हो?'
'इसमें बचपने की क्या बात है? कोई उदार आदमी कभी इतनी कृपणता न करता।'
'मैंने तो कोई ऐसा उदार आदमी नहीं देखा, जो अपनी बहू के गहने किसी गैर को दे दे।'
'मैं गैर नहीं हूँ। हम दोनों एक ही मकान में रहते हैं। मैं उनके लड़के को पढ़ाता हूँ और शादी का सारा इन्तजाम कर रहा हूँ। अगर सौ-दो सौ की कोई चीज दे देते, तो वह निष्फल न जाती। मगर धनवानों का हृदय धन के भार से दबकर सिकुड़ जाता है। उनमें उदारता के लिए स्थान ही नहीं रहता।'
रात के बारह बज गये हैं, फिर भी प्रकाश को नींद नहीं आती। बार-बार ही चमकीले गहने आँखों के सामने आ जाते हैं। कुछ बादल हो आये हैं और बार-बार बिजली चमक उठती है।
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