कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 13 प्रेमचन्द की कहानियाँ 13प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेरहवाँ भाग
सहसा एक तांगा आता हुआ दिखायी दिया और सामने आते ही उस पर से एक स्त्री उतर कर उनकी ओर चली। अरे! यह तो गुलशन है। उन्होंने आतुरता से आगे बढ़कर उसे गले लगा लिया और बोले, 'तुम इस वक्त यहाँ कैसे आयीं? मैं अभी-अभी तुम्हारा ही खयाल कर रहा था।' गुलशन ने गद्गद कण्ठ से कहा, 'तुम्हारे ही पास जा रही थी। शामको बरामदे में बैठी तुम्हारा लेख पढ़ रही थी। न-जाने कब झपकी आ गयी और मैंने एक बुरा सपना देखा। मारे डर के मेरी नींद खुल गयी और तुमसे मिलने चल पड़ी। इस वक्त यहाँ कैसे खड़े हो? कोई दुर्घटना तो नहीं होगयी? रास्ते भर मेरा कलेजा धड़क रहा था।'
कावसजी ने आश्वासन देते हुए कहा, 'मैं तो बहुत अच्छी तरह हूँ।'
'तुमने क्या स्वप्न देखा?'
'मैंने देखा ज़ैसे तुमने एक रमणी को कुछ कहा, है और वह तुम्हें बाँध कर घसीटे लिये जा रही है।'
'कितना बेहूदा स्वप्न है; और तुम्हें इस पर विश्वास भी आ गया?
मैं तुमसे कितनी बार कह चुका कि स्वप्न केवल चिन्तित मन की क्रीड़ा है।'
'तुम मुझसे छिपा रहे हो। कोई न कोई बात हुई है जरूर। तुम्हारा चेहरा बोल रहा है। अच्छा, तुम इस वक्त यहाँ क्यों खड़े हो? यह तो तुम्हारे पढ़ने का समय है।'
'यों ही, जरा घूमने चला आया था।'
'झूठ बोलते हो। खा जाओ मेरे सिर की कसम।'
'अब तुम्हें एतबार ही न आये तो क्या करूँ?'
'कसम क्यों नहीं खाते?'
'कसम को मैं झूठ का अनुमोदन समझता हूँ।'
गुलशन ने फिर उनके मुख पर तीव्र दृष्टि डाली। फिर एक क्षण के बाद बोली, 'अच्छी बात है। चलो, घर चलें।'
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