कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 13 प्रेमचन्द की कहानियाँ 13प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेरहवाँ भाग
''कहाँ जाओगी? ''
''यह नहीं कह सकती, बहुत दूर।''
सिपाही ने रानी की ओर फिर ध्यान से देखा और कहा- ''जरा अपनी कटार मुझे दिखाओ।''
रानी कटार सँभालकर खड़ी हो गई और तीव्र स्वर से बोली- ''मित्र हो या शत्रु?''
ठाकुर ने कहा- ''मित्र।''
सिपाही के बातचीत करने के ढंग और चेहरे में कुछ ऐसी विलक्षणता थी, जिससे रानी को विवश होकर विश्वास कर पड़ा। वह बोली- ''विश्वासघात न करना। यह देखो।''
ठाकुर ने कटार हाथ में ली। उसे उलट-पलटकर देखा और बड़े नम्र भाव से उसे आखों से लगाया। तब रानी के आगे विनीत भाव से सिर झुकाकर वह बोला- ''महारानी चंद्रकुँवरि! ''
रानी ने करुण स्वर से कहा- ''नहीं, अनाथ भिखारिनी। तुम कौन हो?''
सिपाही ने उत्तर दिया- ''आपका एक सेवक।''
रानी ने उसकी ओर निराश दृष्टि से देखा और कहा- ''दुर्भाग्य के सिवा इस संसार में मेरा कोई नहीं।''
सिपाही ने कहा- ''महारानीजी, ऐसा न कहिए। पंजाब के सिंह की मतरानी के वचन पर अब भी सैकड़ों सिर झुक सकते हैं। देश में ऐसे लोग वर्त्तमान हैं, जिन्होंने आपका नमक खाया है और उसे भूले नहीं हैं।''
रानी- ''अब इसकी इच्छा नहीं। केवल एक शांत-स्थान चाहती हूँ जहां पर एक कुटी के सिवा और कुछ न हो।''
सिपाही- ''ऐसा स्थान पहाड़ों ही में मिल सकता है। हिमालय की गोद में चलिए, वहीं आप उपद्रवों से बच सकती हैं।''
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