कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 13 प्रेमचन्द की कहानियाँ 13प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेरहवाँ भाग
उसे आश्चर्य हुआ। खजांची ने भूल तो नहीं की? इन तीन बरसों में पूरा वेतन तो कभी मिला नहीं। और अबकी तो आधा भी मिले तो बहुत है। वह एक सेकण्ड वहाँ खड़ी रही कि शायद खजांची उससे रुपया वापस माँगे। जब खजांची ने पूछा, अब क्यों खड़ी है। जाती क्यों नहीं? तब वह धीरे से बोली- यह तो पूरे रुपये हैं।
खजांची ने चकित होकर उसकी ओर देखा!
‘तो और क्या चाहती है, कम मिलें?’
‘कुछ जरीमाना नहीं है?’
‘नहीं, अबकी कुछ जरीमाना नहीं है।’
अलारक्खी चली, पर उसका मन प्रसन्न न था। वह पछता रही थी कि दारोग़ाजी को गाली क्यों दी।
5. जुलूस
पूर्ण स्वराज्य का जुलूस निकल रहा था। कुछ युवक, कुछ बूढ़े, कुछ बालक झंडियां और झंडे लिये बंदेमातरम् गाते हुए माल के सामने से निकले। दोनों तरफ दर्शकों की दीवारें खड़ी थीं, मानो यह कोई तमाशा है और उनका काम केवल खड़े-खड़े देखना है।
शंभुनाथ ने दूकान की पटरी पर खड़े होकर अपने पड़ोसी दीनदयाल से कहा- सब के सब काल के मुँह में जा रहे हैं। आगे सवारों का दल मार-मार भगा देगा।
दीनदयाल ने कहा- महात्मा जी भी सठिया गये हैं। जुलूस निकालने से स्वराज्य मिल जाता तो अब तक कब का मिल गया होता। और जुलूस में हैं कौन लोग, देखो - लौंड़े, लफंगे, सिरफिरे। शहर का कोई बड़ा आदमी नहीं। मैकू चिट्टियों और स्लीपरों की माला गरदन में लटकाये खड़ा था। इन दोनों सेठों की बातें सुन कर हंसा।
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