कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 13 प्रेमचन्द की कहानियाँ 13प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेरहवाँ भाग
ज्योंही मोहन संध्या समय दूध बेचकर घर आया बूटी ने कहा- देखती हूँ, तू अब साँड़ बनने पर उतारू हो गया है।
मोहन ने प्रश्न के भाव से देखा- कैसा साँड़! बात क्या है?
‘तू रूपिया से छिप-छिपकर नहीं हँसता-बोलता? उस पर कहता है कैसा साँड़? तुझे लाज नहीं आती? घर में पैसे-पैसे की तंगी है और वहाँ उसके लिए पान लाये जाते हैं, कपड़े रँगाए जाते हैं।’
मोहन ने विद्रोह का भाव धारण किया- अगर उसने मुझसे चार पैसे के पान माँगे तो क्या करता? कहता कि पैसे दे, तो लाऊँगा? अपनी धोती रँगने को दी, उससे रँगाई मांगता?
‘मुहल्ले में एक तू ही धन्नासेठ है! और किसी से उसने क्यों न कहा?’
‘यह वह जाने, मैं क्या बताऊँ।’
‘तुझे अब छैला बनने की सूझती है। घर में भी कभी एक पैसे का पान लाया?’
‘यहाँ पान किसके लिए लाता?’
‘क्या तेरे लिखे घर में सब मर गए?’
‘मैं न जानता था, तुम पान खाना चाहती हो।’
‘संसार में एक रुपिया ही पान खाने जोग है?’
‘शौक-सिंगार की भी तो उमिर होती है।’
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