कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 14 प्रेमचन्द की कहानियाँ 14प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौदहवाँ भाग
मैंने कोई जवाब न दिया। सोचा– यह आज कहाँ से आ कर सिर पर सवार हो गये।
जयदेव ने फिर पुकारा– अरे, कहाँ हो भाई? बोलते क्यों नहीं? कोई घर में है या नहीं?
कहीं से कोई जवाब न मिला।
जयदेव ने द्वार को इतने जोर से झँझोड़ा कि मुझे भय हुआ, कहीं दरवाजा चौखट-बाजू समेत गिर न पड़े। फिर भी मैं बोला नहीं। उनका आना खल रहा था।
जयदेव चले गये। मैंने आराम की साँस ली। बारे शैतान टला, नहीं घंटों सिर खाता।
मगर पाँच ही मिनट में फिर किसी के पैरों की आहट मिली और अब की टार्च के तीव्र प्रकाश से मेरा सारा कमरा भर उठा। जयदेव ने मुझे बैठे देख कर कुतूहल से पूछा– तुम कहाँ गये थे जी? घंटों चीखा, किसी ने जवाब तक न दिया। यह आज क्या मामला है! चिराग़ क्यों नहीं जले?
मैंने बहाना किया– क्या जानें, मेरे सिर में दर्द था, दूकान से आ कर लेटा, तो नींद आ गयी।
‘और सोये तो घोड़ा बेचकर, मुर्दों से शर्त लगा कर?’
‘हाँ यार, नींद आ गयी।’
‘मगर घर में चिराग़ तो जलाना चाहिए था। या उसका रिट्रेंचमेंट कर दिया?’
‘आज घर में लोग व्रत से हैं। न हाथ खाली होगा।’
‘खैर चलो, कहीं झाँकी देखने चलते हो? सेठ घूरेलाल के मन्दिर में ऐसी झाँकी बनी है कि देखते ही बनता है। ऐसे-ऐसे शीशे और बिजली के सामान सजाये हैं कि आँखें झपक उठती हैं। सिंहासन के ठीक सामने ऐसा फोहारा लगाया है कि उसमें से गुलाबजल की फुहारें निकलती हैं। मेरा तो चोला मस्त हो गया। सीधे तुम्हारे पास दौड़ा आ रहा हूँ। बहुत झँकियाँ देखी होंगी तुमने, लेकिन यह और ही चीज है। आलम फटा पड़ता है। सुनते हैं, दिल्ली से कोई चतुर कारीगर आया है। उसी की यह करामात है।’
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