कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 15 प्रेमचन्द की कहानियाँ 15प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पन्द्रहवाँ भाग
बोलीं- 'अगर ऐसों ही का नाम मित्र है, तो मैं नहीं समझती, शत्रु किसे कहते हैं।'
ढपोरसंख ने मेरी तरफ देखकर, मानो मुझसे हामी भराने के लिए कहा-- 'औरतों का हृदय बहुत ही संकीर्ण होता है।'
देवीजी नारी-जाति पर यह आपेक्ष कैसे सह सकती थीं, आँखें तरेरकर बोलीं- 'यह क्यों नहीं कहते, कि उल्लू बनाकर ले गया, ऊपर से हेकड़ी जताते हो! दाल गिर जाने पर तुम्हें भी सूखा अच्छा लगे, तो कोई आश्चर्य नहीं। मैं जानती हूँ, रुपया हाथ का मैल है। यह भी समझती हूँ कि जिसके भाग्य का जितना होता है, उतना वह खाता है; मगर यह मैं कभी न मानूँगी, कि वह सज्जन था और आदर्शवादी था और यह था, वह था। साफ-साफ क्यों नहीं कहते, लंपट था, दगाबाज था! बस, मेरा तुमसे कोई झगड़ा नहीं।'
ढपोरसंख ने गर्म होकर कहा, 'मैं यह नहीं मान सकता।'
देवीजी भी गर्म होकर बोलीं- 'तुम्हें मानना पड़ेगा। महाशयजी आ गये हैं। मैं इन्हें पंच बदती हूँ। अगर यह कह देंगे, कि सज्जनता का पुतला था, आदर्शवादी था, वीरात्मा था, तो मैं मान लूँगी और फिर उसका नाम न लूँगी। और यदि इनका फैसला मेरे अनुकूल हुआ, तो लाला, तुम्हें इनको अपना बहनोई कहना पड़ेगा!'
मैंने पूछा, 'मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है, आप किसका जिक्र कर रही हैं? वह कौन था?'
देवीजी ने आँखें नचाकर कहा, 'इन्हीं से पूछो, कौन था? इनका बहनोई था!'
ढपोरसंख ने झेंपकर कहा, 'अजी, एक साहित्य-सेवी था करुणाकर जोशी। बेचारा विपत्ति का मारा यहाँ आ पड़ा था! उस वक्त तो यह भी भैया-भैया करती थीं, हलवा बना-बनाकर खिलाती थीं, उसकी विपत्ति-कथा सुनकर टेसुवे बहाती थीं और आज वह दगाबाज है, लंपट है, लबार है?'
देवीजी ने कहा, 'वह तुम्हारी खातिर थी। मैं समझती थी, लेख लिखते हो, व्याख्यान देते हो, साहित्य के मर्मज्ञ बनते हो, कुछ तो आदमी पहचानते होगे। पर अब मालूम हो गया, कि कलम घिसना और बात है, मनुष्य की नाड़ी पहचानना और बात।'
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