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प्रेमचन्द की कहानियाँ 15

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9776
आईएसबीएन :9781613015131

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पन्द्रहवाँ भाग


जोशी ने बैठकर एक सिगार जलाते हुए कहा, 'बहुत अच्छी तरह हूँ। मेरे बाबू साहब बड़े ही सज्जन आदमी हैं। मेरे लिए अलग एक कमरा खाली करा दिया है। साथ ही खिलाते हैं। बिलकुल भाई की तरह रखते हैं। आजकल किसी काम से दिल्ली गये हैं। मैंने सोचा, यहाँ पड़े-पड़े क्या करूँ, तब तक आप ही लोगों से मिलता आऊँ। चलते वक्त बाबू साहब ने मुझसे कहा था, मुरादाबाद से थोड़े-से बर्तन लेते आना, मगर शायद उन्हें रुपये देने की याद नहीं रही। मैंने उस वक्त माँगना भी उचित न समझा। आप एक पचास रुपये दे दीजिएगा। मैं परसों तक जाऊँगा और वहाँ से जाते-ही-जाते भिजवा दूँगा। आप तो जानते हैं, रुपये के मुआमले में वे कितने खरे हैं।'

मैंने जरा रुखाई के साथ कहा, 'रुपये तो इस वक्त मेरे पास नहीं हैं।'

देवीजी ने टिप्पणी की- 'क्यों झूठ बोलते हो? तुमने रुखाई से कहा था, कि रुपये नहीं हैं?'

ढपोरसंख ने पूछा, 'और क्या चिकनाई के साथ कहा, था?'

देवीजी- 'तो फिर कागज के रुपये क्यों दे दिये थे?' बड़ी रुखाई करनेवाले!

ढपोरसंख- 'अच्छा साहब, मैंने हँसकर रुपये दे दिये। बस, अब खुश हुईं। तो भई, मुझे बुरा तो लगा; लेकिन अपने सज्जन मित्र का वास्ता था।'

मेरे ऊपर बेचारे बड़ी कृपा रखते हैं। मेरे पास पत्रिका का कागज खरीदने के लिए पचास रुपये रखे हुए थे। वह मैंने जोशी को दे दिये। शाम को माथुर ने आकर कहा, ज़ोशी तो चले गये। कहते थे, बाबू साहब का तार आ गया है। बड़ा उदार आदमी है। मालूम ही नहीं होता, कोई बाहरी आदमी है। स्वभाव भी बालकों का-सा है। भांजी की शादी तय करने को कहते थे। लेन-देन का तो कोई जिक्र है ही नहीं, पर कुछ नजर तो देनी ही पड़ेगी। बैरिस्टर साहब, जिनसे विवाह हो रहा है, दिल्ली के रहने वाले हैं। उनके पास जाकर नजर देनी होगी। जोशीजी चले जायँगे। आज मैंने रुपये भी दे दिये। चलिए, एक बड़ी चिन्ता सिर से टली।

मैंने पूछा, 'रुपये तो तुम्हारे पास न होंगे?'

माथुर ने कहा, 'रुपये कहाँ थे साहब! एक महाजन से स्टाम्प लिखकर लिये, दो रुपये सैकड़े सूद पर।'

देवीजी ने क्रोध भरे स्वर में कहा, 'मैं तो उस दुष्ट को पा जाऊँ तो मुँह नोच लूँ। पिशाच ने इस गरीब को भी न छोड़ा।'

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