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प्रेमचन्द की कहानियाँ 15

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9776
आईएसबीएन :9781613015131

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पन्द्रहवाँ भाग


माथुर ने हँसकर कहा, 'मेरे तो सिर में दर्द भी नहीं हुआ।'

ढपोरसंख ने पूछा, 'अच्छा, आपके मुरादाबादी बरतन तो पहुँच गये?'

आगरा-निवासी मित्र ने कुतूहल से पूछा, 'क़ैसे मुरादाबादी बरतन?'

'वही जो आपने जोशी की मारफत मँगवाये थे?'

'मैंने कोई चीज उसकी मारफत नहीं मँगवाई। मुझे जरूरत होती तो आपको सीधा न लिखता!'

माथुर ने हँसकर कहा, 'तो यह रुपये भी उसने हजम कर लिये।'

आगरा-निवासी मित्र बोले- 'मुझसे भी तो तुम्हारी मृत्यु के बहाने सौ रुपये लाया था। यह तो एक ही जालिया निकला। उफ! कितना बड़ा चकमा दिया है इसने! जिन्दगी में यह पहला मौका है, कि मैं यों बेवकूफ बना।

बच्चा को पा जाऊँ तो तीन साल को भेजवाऊँ। कहाँ हैं आजकल?'

माथुर ने कहा, 'अभी तो ससुराल में है।'

ढपोरसंख का वृत्तान्त समाप्त हो गया। जोशी ने उन्हीं को नहीं, माथुर जैसे और गरीब, आगरा-निवासी सज्जन-जैसे घाघ को भी उलटे छुरे से मूड़ा और अगर भंडा न फूट गया होता तो अभी न-जाने कितने दिनों तक मूड़ता।

उसकी इन मौलिक चालों पर मैं भी मुग्ध हो गया। बेशक! अपने फन का उस्ताद है, छँटा हुआ गुर्गा।

देवीजी बोलीं- सुन ली आपने सारी कथा?

मैंने डरते-डरते कहा, 'हाँ, सुन तो ली।'

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