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प्रेमचन्द की कहानियाँ 15

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9776
आईएसबीएन :9781613015131

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पन्द्रहवाँ भाग


लहने का बाप तगादा है, इस सिद्धान्त के वह अनन्य भक्त थे। जलपान करने के बाद संध्या तक वह बराबर तगादा करते रहते थे। इसमें एक तो घर का भोजन बचता था, दूसरे असामियों के माथे दूध, पूरी, मिठाई आदि पदार्थ खाने को मिल जाते थे। एक वक्त का भोजन बच जाना कोई साधारण बात नहीं है! एक भोजन का एक आना भी रख लें, तो केवल इसी मद में उन्होंने अपने तीस वर्षों के महाजनी जीवन में कोई आठ सौ रुपये बचा लिये थे। फिर लौटते समय दूसरी बेला के लिए भी दूध, दही, तेल, तरकारी, उपले, ईंधन मिल जाते थे। बहुधा संध्या का भोजन भी न करना पड़ता था। इसलिए तगादे से न चूकते थे। आसमान फटा पड़ता हो, आग बरस रही हो, आँधी आती हो; पर सेठजी प्रकृति के अटल नियम की भाँति तगादे पर जरूर निकल जाते।

सेठानी ने पूछा, 'भोजन?'

सेठजी ने गरजकर कहा, 'नहीं।'

'साँझ का?'

'आने पर देखी जायगी।'

सेठजी के एक किसान पर पाँच रुपये आते थे। छ: महीने से दुष्ट ने सूद-ब्याज कुछ न दिया था और न कभी कोई सौगात लेकर हाजिर हुआ था। उसका घर तीन कोस से कम न था, इसलिये सेठजी टालते आते थे। आज उन्होंने उसी गाँव चलने का निश्चय कर लिया। आज बिना दुष्ट से रुपये लिये न मानूँगा, चाहे कितना ही रोये, घिघियाये। मगर इतनी लम्बी यात्रा पैदल करना निन्दास्पद था। लोग कहेंगे नाम बड़े दर्शन थोड़े। कहलाते सेठ, चलते हैं पैदल, इसलिए मंथर गति से इधर-उधर ताकते, राहगीरों से बातें करते चले जाते थे कि लोग समझें वायु-सेवन करने जा रहे हैं। सहसा एक खाली इक्का उनकी तरफ जाता हुआ मिल गया। इक्केवान ने पूछा, 'कहाँ लाला, कहाँ जाना है?

सेठजी ने कहा, 'ज़ाना तो कहीं नहीं है, दो पग तो और है; लेकिन लाओ बैठ जायँ।'

इक्केवाले ने चुभती हुई आँखों से सेठजी को देखा, सेठजी ने भी अपनी लाल आँखों से उसे घूरा। दोनों समझ गये, 'आज लोहे के चने चबाने पड़ेंगे।'

इक्का चला। सेठजी ने पहला वार किया, 'कहाँ घर है मियाँ साहब?'

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