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प्रेमचन्द की कहानियाँ 15

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9776
आईएसबीएन :9781613015131

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पन्द्रहवाँ भाग


उसने लज्जित होकर कहा- माफ करो पूर्णिमा! मेरी भूल थी; बल्कि बेवकूफी थी।

पूर्णिमा का ब्याह हो गया। अमृत जी-जान से उसके ब्याह के प्रबन्ध में लगा रहा। दूल्हा अधेड़ था। तोंदल और भोंडा था और साथ ही बहुत घमण्डी और बद-मिजाज भी था। लेकिन अमृत ऐसी तत्परता से उसकी खातिरदारी कर रहा था कि मानो वह कोई देवता हो और उसकी एक ही मुस्कराहट उसे स्वर्ग में पहुँचा देगी। पूर्णिमा के साथ बातचीत करने का अमृत को अवसर ही नहीं मिला। और न उसने अवसर निकालने का कोई प्रयास किया। वह पूर्णिमा को जब देखता था, तब वह रोती ही रहती थी। और अमृत आँखों की जबान से जहाँ तक हो सकता था, बिना कुछ कहे ही उसे जितना ढाढ़स और तसल्ली दे सकता था, वह देता था और उसके प्रति सहानुभूति दिखलाता था।

तीसरे दिन पूर्णिमा रो-धोकर ससुराल विदा हो गई। अमृत ने उसी दिन शिवजी के मन्दिर में जाकर परम निष्ठा तथा भक्ति से भरे हुए दिल से प्रार्थना की कि पूर्णिमा सदा सुखी रहे। जब नया और ताजा गम हो तो फिर इधर-उधर के और फालतू विचारों का भला कहाँ प्रवेश हो सकता है! दु:ख तो आत्मा के रोगों का नाशक है। परन्तु मन में उसे एक तरह की शून्यता का अनुभव हो रहा था। मानो अब उसका जीवन उजाड़ हो गया था। अब उसका कोई उद्देश्य या कोई कामना नहीं रह गयी थी।

तीन बरस बाद पूर्णिमा फिर मैके आयी। इस बीच में अमृत का भी ब्याह हो गया था। और जीवन का जुआ गरदन पर रखे हुए लकीर पीटता चला जा रहा था। परन्तु उसके मन में एक ऐसी अस्पष्ट-सी वासना दबी हुई थी, जिसे वह कोई स्पष्ट रूप नहीं दे सकता था। वह वासना थर्मामीटर के पारे की तरह उसके अन्दर सुरक्षित थी। अब पूर्णिमा ने आकर उसमें गरमी पैदा कर दी थी और वह पारा चढ़कर सरसाम की सीमा तक जा पहुँचा था। उसकी गोद में दो बरस का एक प्यारा-सा बच्चा था; अमृत उस बच्चे को दिन-रात मानो गले से बाँधे रहता था। वह सबेरे और सन्ध्या उसे गोद में लेकर टहलने जाया करता था। और उसके लिए बाजार से तरह-तरह के खिलौने और मिठाइयाँ लाया करता था। सबेरा होते ही उसके जलपान के लिए हलुआ और दूध लेकर पहुँच जाता था। उसे नहलाता-धुलाता और उसके बाल साफ करता था। उसके फोड़े-फुन्सियाँ धोकर उन पर मलहम लगाता था। ये सभी सेवाएँ उसने अपने जिम्मे ले ली थीं। बच्चा भी उसके साथ इतना हिल-मिल गया था कि पल-भर के लिए भी उसका गला न छोड़ता था। यहाँ तक कि कभी-कभी उसी के पास सो भी जाता था। और पूर्णिमा के आकर बुलाने पर भी उसके साथ नहीं जाता था।

अमृत पूछता- तुम किसके बेटे हो।

बच्चा कहता- टुमाले।

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