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प्रेमचन्द की कहानियाँ 15

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9776
आईएसबीएन :9781613015131

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पन्द्रहवाँ भाग


लेकिन उसकी सूरत देखते ही उसका सारा शौक और सारी उमंग मानो बुझ-सी गयी। वह नि:स्तब्ध होकर खड़ा रह गया। पूर्णिमा उसके सामने आकर सिर झुकाकर खड़ी हो गई। सफेद साड़ी के घूँघट से आधा मुँह छिपा हुआ था, लेकिन कमर झुक गयी थी। बाँहें सूत-सी पतली, पैर के पिछले भाग की रगें उभरी हुईं, आँसू बह रहे थे और चेहरे का रंग बिलकुल पीला पड़ गया था मानो कफ़न में लपेटी हुई लाश खड़ी हो।

पूर्णिमा की मौसी ने आकर कहा- बैठो बेटा! देखते हो इसकी हालत सूखकर काँटा हो गयी है। एक क्षण को भी आँसू नहीं थमते। सिर्फ एक समय सूखी रोटियाँ खाती है और किसी चीज से मतलब नहीं। नमक छोड़ दिया है, घी-दूध सब त्याग दिया है। बस रूखी रोटियों से काम। इस पर आये दिन व्रत रखती है। कभी एकादशी, कभी इतवार और कभी मंगल। एक चटाई बिछाकर जमीन पर सोती है। घड़ी रात रहे उठकर पूजा-पाठ करने लगती है। लड़के समझाते हैं, मगर किसी की नहीं सुनती। कहती है कि जब भगवान् ने सुहाग ही उठा लिया, तो फिर सब कुछ मिथ्या है। जी बहलाने के लिए यहाँ आयी थी। मगर यहाँ भी रोने के सिवा दूसरा काम नहीं। कितना समझाती हूँ कि बेटी, भाग्य में जो कुछ लिखा था, वह हुआ। अब सब्र करो। भगवान ने तुम्हें बाल-बच्चे दिये हैं! उनको पालो। घर में ईश्वर का दिया सब कुछ है। चार को खिलाकर खा सकती हो। मन पवित्र होना चाहिए। शरीर को दु:ख देने से क्या लाभ? लेकिन सुनती ही नहीं। अब तुम समझाओ तो शायद माने।

अमृत ऊपर से देखने में तो नि:स्तब्ध; परन्तु अन्दर हृदय-विदारक वेदना छिपाए हुए खड़ा था। मानो जिस नींव पर उसने जिन्दगी की इमारत खड़ी की थी, वह हिल गयी हो। आज उसे मालूम हुआ कि जन्म भर उसने जिस वस्तु को तथ्य समझ रखा था, वह वास्तव में मृग-तृष्णा थी, अथवा केवल स्वप्न था। पूर्णिमा के इस विकट आत्म-संयम और तपस्वियों के-से आचरण के सामने उसकी समस्त वासनाओं और प्रेम की उमंगों का नाश हो गया था और उसके जीवन का यह नया तथ्य आकर उपस्थित हो गया था कि यदि मन में मिट्टी को देवता बनाने की शक्ति है तो मनुष्य को देवता बनाने की शक्ति है। पूर्णिमा उसी घृणित मनुष्य को देवता बनाकर उसकी पूजा कर रही थी।

उसने शान्त भाव से कहा- तपस्विनी को हम जैसे स्वार्थी लोग कैसे समझा सकते हैं, मौसी? हम लोगों का कर्तव्य इसके चरणों पर सिर झुकाना है, इसे समझाना नहीं।

पूर्णिमा ने मुँह पर का घूँघट हटाते हुए कहा- तुम्हारा बच्चा तुम्हें अभी तक पूछा करता है।

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4. तांगेवाले की बड़-बड़

लेखक को इलाहाबाद में एक बार ताँगे में लम्बा सफर करने का संयोग हुआ। तांगे वाले मियां जम्मन बड़े बातूनी थे। उनकी उम्र पचास के करीब थी, उनकी बड़ से रास्ता इस आसानी से तस हुआ कि कुछ मालूम ही न हुआ। मैं पाठकों के मनोरंजन के लिए उनकी जीवन और बड़ पेश करता हूं।

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